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रथयात्रा नीति में नीलाद्रि विजय और रसगुल्लाभोग का है ऐतिहासिक महत्व

अशोक पाण्डेय, भुवनेश्वर

समस्त जगन्नाथ भक्तों के लिए यह जिज्ञासा का विषय अवश्य है कि जगन्नाथ भगवान का नीलाद्रि विजय और रसगुल्लाभोग क्या है और इसकी परम्परा श्रीमंदिर में कब से आरंभ हुई? ऐसी जानकारी है कि लगभग एक हजार वर्ष से यह परम्परा पुरी के जगन्नाथ मंदिर में देखने को मिलती है. कलियुग के एकमात्र पूर्णदारुब्रह्म भगवान जगन्नाथ के नवकलेवर का आरंभ जब से श्रीमंदिर में हुआ तभी से नीलाद्रि विजय और रसगुल्लाभोग की सुदीर्घ परम्परा रही है. 2021, वैश्विक महामारी कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के संक्रमण के समय महाप्रभु जगन्नाथ का नीलाद्रि विजय आगामी 23 जुलाई, 2021 को है. महाप्रभु जगन्नाथ जब बाहुड़ा विजय कर अपनी जन्मस्थली गुण्डिचा मंदिर से श्रीमंदिर वापस लौटेंगे, तो उनकी पत्नी देवी लक्ष्मीजी श्रीमंदिर में क्रोधित अवस्था में होंगी, जिनको प्रसन्नकर तथा उनकी सहर्ष अनुमति प्राप्तकर जगन्नाथजी अपने रत्नवेदी पर आरुढ़ होंगे. भगवान जगन्नाथ के पास देवी लक्ष्मी को मनाने का एक ही तरीका अंत में काम आता है और वह है देवी लक्ष्मी को रसगुल्ला भोग निवेदितकर उनको प्रसन्न करने का. अपने मानवीय लीलाओं के तहत लीलाधर भगवान जगन्नाथ एक अति साधारण पति के रुप में अपनी पत्नी को मनाते हैं, जिसे 23 जुलाई को दूरदर्शन तथा अन्य टेलीविजन चैनलों के माध्यम से सीधे प्रसारण से सभी घर बैठे अपने-अपने टीवी पर देखेंगे. सच तो यह भी है कि भगवान जगन्नाथ द्वारा अपनी पत्नी देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने का नीलाद्रि विजय के दिन अंत में एक ही उपाय शेष रहता है और वह है उनको रसगुल्ला का भोग अपने हाथों से निवेदितकर उनको प्रसन्न करने का. भक्त बलराम दास, ओड़िया रामायण के रचयिता के अनुसार, दण्डी रामायण, जगमोहन रामायण के अनुसार भरतलालजी अपने भाई शत्रुध्नजी के साथ श्रीरामचन्द्रजी को उनके वनवास से अयोध्या वापस लौटाने के निवेदन के समय भारद्वाज मुनि के आश्रम में जब जाते हैं, तो भारद्वाज मुनिजी माया ब्राह्मणों द्वारा उन्हें दूध से तैयार रसगुल्ला खिलाते हैं. भक्त लेखक ब्रजनाथ बड़जेना अपनी रचना अंबिका विलास में, अभिमन्यू सामंत सिंहारी ने अपनी रचना विदग्ध चिंतामणि में रसगुल्ला भोग का सुंदर वर्णन किया है. जाननेवाले जानते हैं और माननेवाले यह मानते हैं कि गत 2015 के नवकलेवर के क्रम में नीलाद्रि विजय को भगवान जगन्नाथ द्वारा देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए अपने होथों से उनको रसगुल्ला भोग निवेदित करने पर उसे यादगार दिवस के रुप में उस दिन को ओडिशा के रसगुल्ला दिवस के रुप में घोषित किया गया. आज प्रतिवर्ष ओडिशा रसगुल्ला दिवस के रुप में मनाया जाता है. गौरतलब है कि श्रीमंदिर में कुल लगभग 205 प्रकार के सेवायतगण हैं जिनमें भीतरछु महापात्र सेवायत ही रसगुल्ला भोग तैयार करते हैं. भीतरछु महापात्र सेवायत देवी लक्ष्मी के सेवायत हैं, इसीलिए जब अधरपणा संपन्न होता है उसके उपरांत बलभद्रजी, सुभद्राजी तथा सुदर्शनजी को रत्नवेदी पर आरुढ़ कराने की अनुमति देवी लक्ष्मीजी प्रदान कर देती हैं, लेकिन जब जगन्नाथ जी उनको अपने हाथों से रसगुल्ला भोग निवेदित करते हैं तब प्रसन्न होकर देवी लक्ष्मीजी उनको रत्नवेदी पर आरुढ़ होने की अनुमति प्रदान करती हैं. लगभग एक हजार वर्ष से पुरी बड़ ओड़िया मठ, उत्तर पार्श्व मठ, नेवलदास मठ, राधावल्लव मठ, राधेश्याम मठ और कटकी मठ आदि में रसगुल्ला तैयार किया जाता है. नीलाद्रि विजय के समय रसगुल्ला तैयार करने को ओडिशा में पवित्र कार्य माना जाता है. ओडिशा के पुरी, कटक, नयागढ़, भुवनेश्वर, और भुवनेश्वर-कटक राजमार्ग के समीप  पहल में बहुतायत मात्रा में रसगुल्ला तैयार कर उसे बेचा जाता है.

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