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बूढ़ा बरगद – गांव से लाकर, शहर में आज लगाया…!!!

भूखंडों पर खंड खंड कर,
सीमेंट सरियों से जोड़ दिया।
दो भाई अब साथ रहें ना,
परिवार सभी का तोड़ दिया।।

मात पिता का रहना मुस्किल,
यदि रहें तो सहना मुस्किल।
अब पत्नी चाहे अपना जीवन,
है उसको भी कहना मुस्किल।।

तीन रूम का रहना सहना,
जीवन कैदी जैसा  है।
और कहां अब जाएं प्यारे,
नहीं पास में पैसा है।।

जिसने हमको स्वच्छंद पाला,
हम उसे जेल में ले आए।
वो देख रहे हैं टुकुर टुकुर,
आंख फाड़कर भरमाए।।

थे जेलर वो आज हैं कैदी,
मात पिता जिन्हें कहते हैं।
बिना सजा के सजा याफ्ता,
साथ हमारे रहते हैं।।

बूढ़ा बरगद है।
सूख रहा है धीरे – धीरे,
हमने पाप कमाया है।।

क्या होगा जीवन का आगे,
दादी बोली पोते से।
खुशुर फुशुर जब हुई कान में,
दादा जी बोले रोते से।।

जितना डालो पानी तुलसी,
सूख गई मिंजराने से।
क्या सूनी होती है बगिया,
कुछ फूलों के मुरझाने से?

लेखक – किशन खंडेलवाल

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