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अय़ोध्या  मामले में  वामपंथी इतिहासकारों को क्षमायाचना करने का समय

एएसआई (उत्तर) के पूर्व क्षेत्रीय प्रमुख केके मोहम्मद ने अपनी पुस्तक ‘नजान एन्ना भारतीयन’ (मैं एक भारतीय) नामक मलायलम आत्मकथा  में मार्क्सवादी इतिहासकार इरफान हबीब, रोमिला थापर, डीएन झा, विपन चंद्रा व अन्य लोगों ने किस ढंग से अय़ोध्या मामले के समाधान होने नहीं दिया तथा मुसलमानों को भड़काया उसका विवरण का जिक्र किया है.

खुदाई में मिले अवशेष – फोटो : नितिन मिश्र (साभार-अमर उजाला)

डा समन्वय नंद

वैसे तो अयोध्या मामले में सुप्रीमकोर्ट का निर्णय आने के बाद ही वामपंथी इतिहासकारों का झूठ स्पष्ट हो गया था, लेकिन अभी राम मंदिर निर्माण के लिए श्रीराम जन्म भूमि परिसर के समतलीकरण की प्रक्रिया में जो अवशेष मिल रहे हैं, उससे उनकी कलई पूरी तरह खुल गई है.

राम मंदिर का निर्माण करने के लिए श्रीराम जन्म भूमि परिसर में समतलीकरण का कार्य शुरू हो चुका है और वहां खुदाई में प्राचीन अवशेष मिल रहे हैं. इस दौरान कई पुरातात्विक मूर्तियाँ, खंभे और शिवलिंग मिल रहे हैं. अब यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि अयोध्या के श्रीराम जन्म भूमि पर वहां स्थित मंदिर को तोड़ कर बाबरी ढांचा खड़ा किया गया था, लेकिन वामपंथी इतिहासकारों ने लगातार कोर्ट में व कोर्ट के बाहर इस मामले में सफेद झूठ बोलते रहे. लोगों को बरगलाते रहे हैं. बिना किसी ऐतिहासिक साक्ष्य व प्रमाण के इस मामले को उलझाते रहे. उन्होंने बिना कारण के इस मामले को लंबा समय खिंचा तथा भारतीय समाज में वैमनस्य की भावना को बढ़ाया.

सबसे पहले तो एएसआई (उत्तर) के पूर्व क्षेत्रीय प्रमुख केके मोहम्मद ने अपनी पुस्तक ‘नजान एन्ना भारतीयन’ (मैं एक भारतीय) नामक मलायलम आत्मकथा  में मार्क्सवादी इतिहासकार इरफान हबीब, रोमिला थापर, डीएन झा, विपन चंद्रा व अन्य लोगों ने किस ढंग से अय़ोध्या मामले के समाधान होने नहीं दिया तथा मुसलमानों को भड़काया उसका विवरण का जिक्र किया है. डा मोहम्मद 1976-77 में अय़ोध्या में खुदाई टीम के सदस्य थे. उस दौरान उन्हें विवादीय ढांचे के नीचे मंदिर के अवशेष मिले थे. उनका स्पष्ट रुप से कहना है कि वामपंथी इतिहासकारों के कारण ही अय़ोध्या का मामला लंबा समय तक चला तथा उन्हें मुसलमान व कोर्ट दोनों को भ्रमित करने का प्रयास किया.
श्रीराम जन्म भूमि–बाबरी ढांचा विवाद के समाधान के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने अत्यंत गंभीर प्रयास किया था. प्रसिद्ध लेखक सीताराम गोयल ने अपनी ‘ हिन्दू टेम्प्स ह्वाट हैपैंड टू देम ‘पुस्तक के ‘द अयोध्या डिवेट‘ अध्याय  में इस बात का वर्णन किया है कि कैसे नवंबर 1990 से फरवरी 1991 के बीच अयोध्या मामले का समाधान निकालने के लिए तत्कालीन केन्द्र सरकार के गंभीर प्रयासों को विफल करने में सबसे बड़ी भूमिका इन मार्क्सवादी इतिहासकारों की थी. ये मार्क्सवादी इतिहासकार मुसलमान पक्ष की पीठ ठोकते थे तथा उनके आधिकारिक विशेषज्ञ बनकर वार्ता करने के लिए उतरे थे. उन्होंने जिन आधारों पर वार्ता में अपनी बहस शुरु की थी, ठीक उन्हीं पर हिन्दू पक्ष को अत्यंत मजबूत पाकर मामले को बीच में छोड़ भाग खड़े हुए. उस समय मुसलमान पक्ष इस मामले को लेकर समझौते के पक्ष में था, लेकिन इन वामपंथी इतिहासकारों ने उन्हें भ्रमित कर समझौता कराने नहीं दिया. यदि मार्क्सवादी इतिहासकार ऐसे नहीं करते तो शायद मामले का समाधान काफी पहले आ चुका होता.

2010 में अयोध्या मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय आने के बाद भी ऐसा मौका  आया था, जब इस मामले को आपस में समाधान निकाला जा सकता था, लेकिन उस समय भी मार्क्सवादी इतिहासकार रोमिला थापर ने इस निर्णय की  आलोचना करते हुए कहा कि यह निर्णय राजनीति प्रेरित है. इससे एक बात यह भी स्पष्ट हो जाती है कि मार्क्सवादी इतिहासकारों को किसी पर विश्वास नहीं होता, न्यायालय पर भी नहीं. वे तब तक न्यायालय को सही मानते हैं जब तक न्यायालय का निर्णय उनके पक्ष में हो अन्यथा नहीं.

अय़ोध्या मामले में मार्क्सवादी इतिहासकार अपना तर्क बार-बार बदलते रहे. पहले तो उन्होंने यह तर्क दिया था कि बाबरी ढांचा जहां था उसके नीचे किसी प्रकार का हिन्दू मंदिर नहीं था, लेकिन जब न्यायालय के निर्देश के बाद वहां खुदाई की गई तथा वहां से मंदिर के भग्नावशेष मिले, तब उन्होंने अपना तर्क बदलने में मिनट भी नहीं लगाये. मंदिर के भग्नावशेष मिलने के बाद उन्होंने यह कहा कि वह स्थान बौद्ध-जैनों के संबंधित था, मंदिर नहीं था. यह स्पष्ट है कि मार्क्सवादी इस मामले को उलझाना चाहते थे. यही कारण है कि वे अपना तर्क बार-बार बदल रहे थे. उनका मूल उद्देश्य था कि इस मामले को समाधान न होने देना तथा विवाद जारी रखना. फिर से अय़ोध्या के श्रीराममंदिर परिसर से मंदिर के अवशेष मिलने के बाद क्या मार्क्सवादी इतिहासकारों को देश के सामने क्षमायाचना नहीं करनी चाहिए? जिस विवाद का समाधान आसानी से हो सकता था, उसे न होने देने तथा  देश का माहौल को जहरीला बनाने के प्रयासों के कारण उन्हें निश्चित रुप से क्षमा मांगनी चाहिए, लेकिन वे ऐसा करेंगे, ऐसा नहीं लगता. कारण उन्हें पहले से ही पता था कि वे झूठ बोल रहे हैं. मार्क्सवादियों ने इतिहास को इतिहास नहीं बल्कि अपने विचारधारा का औजार के रुप में हमेशा इस्तेमाल किया है. इस घटना से एक और यक्ष प्रश्न सामने है कि ऐसे में क्या हमें इन मार्क्सवादी इतिहासकारों द्वारा लिखित इतिहास को क्या सही करने की दशा में कदम नहीं उठाने चाहिए?

(लेखक युवा वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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