महाराष्ट्र के औरंगाबाद से लगभग 29 कि.मी. की दूर पर वेरुल नामक गांव में घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग है। यह ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में आखिरी माना जाता है। कई ग्रंथों और पुराणों में उल्लेख है कि घुश्मेश्वर महादेव के दर्शन कर लेने से मनुष्य को जीवन का हर सुख मिलता है। इस ज्योतिर्लिंग को घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहा जाता है।
ऐसे हुई थी घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना
घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना के पीछे एक रोचक कहानी है। कहा जाता है कि दक्षिण दिशा के देवगिरी पर्वत के पास सुधर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुदेहा था। उन दोनों की कोई संतान नहीं थी। संतान पाने की इच्छा से सुदेहा ने अपने पति को अपनी ही छोटी बहन घुश्मा से विवाह करने को कहा। अपनी पत्नी के कहने पर सुधर्मा ने घुश्मा से विवाह कर लिया। विवाह के बाद दोनों बहनें सुधर्मा के साथ प्रेम से रहने लगीं। घुश्मा भगवान शिव की बहुत बड़ी भक्त थी, वह रोज सौ पार्थिव शिवलिंग बना कर उनकी पूजा करती थी और पूजा के बाद उन्हें एक सरोवर में विसर्जित कर देती थी। कुछ समय बाद जब घुश्मा को पुत्र हुआ तो सुदेहा को उससे जलन होने लगी। एक दिन सुदेहा ने घुश्मा के पुत्र का वध कर दिया और उसके शव को उसी सरोवर में फेंक दिया, जहां घुश्मा अपने शिवलिंगों को विसर्जित करती थी। जब घुश्मा को अपने पुत्र की हत्या के बारे में पता चला तो भी उसका मन जरा भी विचलित नहीं हुआ। वह रोज की तरह शिवलिंग बना कर उनकी पूजा करने लगी और भगवान से अपने पुत्र को वापस पाने की कामना करने लगी। पूजा के बाद जब घुश्मा शिवलिंगों को सरोवर में विसर्जित करने गई तो उसका पुत्र सरोवर के किनारे जीवित खड़ा था। अपने पुत्र की मृत्यु का कारण जानने पर भी घुश्मा के मन में अपनी बड़ी बहन के प्रति जरा भी क्रोध नहीं आया। घुश्मा की इसी सरलता और भक्ति से खुश होकर भगवान शिव ने उसे दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। भगवान शिव के ऐसा कहने पर घुश्मा ने भगवान से अपनी बहन को उसके अपराध के लिए मांग करने को और हमेशा के लिए इसी स्थान पर रहने का वरदान मांगा। घुश्मा के कहने पर भगवान उसी स्थान पर घुश्मेश्वर लिंग के रूप में स्थित हो गए।
साभार-पी श्रीवास्तव