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श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत 30 को, आइए जानते कथा एवं पूजन की विधि…!!!

30 अगस्त 2021 सोमवार को जन्माष्टमी है।
भविष्यपुराण उत्तरपर्व अध्याय-24
राजा युधिष्ठिर ने कहा- अच्युत! आप विस्तार से (अपने जन्म-दिन) जन्माष्टमी व्रत का विधान बतलाने की कृपा करें।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले – राजन! जब मथुरा में कंस मारा गया, उस समय माता देवकी मुझे अपनी गोद में लेकर रोने लगीं। पिता वसुदेवजी भी मुझे तथा बलदेवजी आलिंगन कर गद्गदवाणी से कहने लगे- ‘आज मेरा जन्म सफल हुआ, जो मैं अपने दोनों पुत्रों को कुशल से देख रहा हूँ। सौभाग्य से आज हम सभी एकत्र मिल रहे हैं।’ हमारे माता-पिता को अति हर्षित देखकर बहुत से लोग वहाँ एकत्र हुए और मुझसे कहने लगे– ‘भगवन! आपने बहुत बड़ा काम किया, जो इस दुष्ट कंसको मारा। हम सभी इससे बहुत पीड़ित थे। आप कृपाकर यह बतलाये कि आप माता देवकी के गर्भ से कब आविर्भूत हुए थे ? हम सब उस दिन महोत्सव मनाया करेंगे। आपको बार-बार नमस्कार है, हम सब आपकी शरण में हैं। आप हम पर प्रसन्न होइये। उस समय पिता वसुदेवजी ने भी मुझसे कहा था कि अपना जन्मदिन इन्हें बता दो।
तब मैंने मथुरानिवासी जनों को जन्माष्टमी व्रत का रहस्य बतलाया और कहा– ‘पुरवासियों ! आपलोग मेरे जन्म दिन को विश्व में जन्माष्टमी के नाम से प्रसारित करें। प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति को जन्माष्टमी का व्रत अवश्य करना चाहिये। जिस समय सिंह राशि पर सूर्य और वृष राशि पर चन्द्रमा था, उस भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को अर्धरात्रि में रोहिणी नक्षत्र में मेरा जन्म हुआ। वसुदेवजी के द्वारा माता देवकी के गर्भ से मैंने जन्म लिया। यह दिन संसार में जन्माष्टमी नाम से विख्यात होगा। प्रथम यह व्रत मथुरा में प्रसिद्ध हुआ और बाद में सभी लोकों में इसकी प्रसिद्धी हो गयी। इस व्रत के करने से संसार में शान्ति होगी, सुख प्राप्त होगा और प्राणिवर्ग रोगरहित होगा।
महाराज युधिष्ठिर ने कहा – भगवन! अब आप इस व्रत का विधान बतलाये, जिसके करने से आप प्रसन्न होते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण बोले – महाराज! इस एक ही व्रत के कर लेने से सात जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। व्रत के पहले दिन दंतधावन आदि करके व्रत का नियम ग्रहण करें। व्रत के दिन मध्यान्ह में स्नान कर माता भगवती देवकी का एक सूतिका गृह बनाये। उसे पद्मरागमणि और वनमाला आदिसे सुशोभित करें। गोकुल की भांति गोप, गोपी, घंटा, मृदंग, शंख और मांगल्य-कलश आदिसे समन्वित तथा अलंकृत सुतिका-गृह के द्वारपर रक्षा के लिए खणग, कृष्ण छाग, मुशल आदि रखें। दीवालों पर स्वस्तिक आदि मांगलिक चिन्ह बना दें। षष्ठीदेवी की भी नैवेद्य आदि के साथ स्थापना करें। इस प्रकार यथाशक्ति उस सूतिकागृह को विभूषितकर बीच में पर्यंक के ऊपर मुझसहित अर्धसुप्तावस्थावाली, तपस्विनी माता देवकी की प्रतिमा स्थापित करें। प्रतिमाएँ आठ प्रकार की होती हैं –स्वर्ण, चाँदी, ताम्र, पीतल, मृत्तिका, काष्ठ की मणिमयी तथा चित्रमयी। इनमे से किसी भी वस्तुकी सर्वलक्षणसम्पन्न प्रतिमा बनाकर स्थापित करें। माता देवकी का स्तनपान करती हुई बालस्वरूप मेरी प्रतिमा उनके समीप पलंग के ऊपर स्थापित करें। एक कन्या के साथ माता यशोदा की प्रतिमा भी वहां स्थापित की जाय। सूतिका-मंडप के ऊपर की भित्त्तियों में देवता, ग्रह, नाग तथा विद्याधर आदि की मूर्तियाँ हाथोसे पुष्प-वर्षा करते हुए बनाये। वसुदेवजी को सूतिकागृह के बाहर खणग और ढाल धारण किये चित्रित करना चाहिये। वसुदेवजी महर्षि कश्यप के अवतार हैं और देवकी माता अदितिकी। बलदेवजी शेषनाग के अवतार हैं, नन्दबाबा दक्षप्रजापति के, यशोदा दिति की और गर्गमुनि ब्रह्माजी के अवतार हैं। कंस कालनेमिका अवतार है। कंस के पहरेदारों को सूतिकागृह के आस-पास निद्रावस्था में चित्रित करना चाहिये। गौ, हाथी आदि तथा नाचती-गाती हुई अप्सराओं और गन्धर्वो की प्रतिमा भी बनाये। एक ओर कालिया नाग को यमुना के ह्रदय में स्थापित करें।
इस प्रकार अत्यंत रमणीय नवसुतिका-गृह में देवी देवकी की स्थापनकर भक्ति से गंध, पुष्प, अक्षत, धूप, नारियल, दाडिम, ककड़ी, बीजपुर, सुपारी, नारंगी तथा पनस आदि जो फल उस देशमें उससमय प्राप्त हों, उन सबसे पूजनकर माता देवकी की इसप्रकार प्रार्थना करे –
गायभ्दि: किन्नराध्यै: सततपरिवृता वेणुवीणानीनादै भृंगारादर्शकुम्भप्रमरकृतकरै: सेव्यमाना मुनीन्द्रै:।
पर्यन्गे स्वास्तृते या मुदित्ततरमना: पुत्रिणी सम्यगास्ते सा देवी देवमाता जयति सुवदना देवकी कान्तरूपा।।
‘जिनके चारों ओर किन्नर आदि अपने हाथों में वेणु तथा वीणा-वाद्यों के द्वारा स्तुति-गान कर रहे हैं और जो अभिषेक-पात्र, आदर्श, मंगलमय कलश तथा चँवर हाथों में लिए श्रेष्ठ मुनिगणोंद्वारा सेवित हैं तथा जो कृष्ण-जननी भलीभांति बिछे हुए पलंगपर विराजमान हैं, उन कमनीय स्वरुपवाली सुवदना देवमाता अदिति-स्वरूपा देवी देवकी की जय हो।’
उस समय यह ध्यान करें कि कमलासना लक्ष्मी देवकी के चरण दबा रही हो | उन देवी लक्ष्मी की – ‘नमो देव्यै हादेव्यै शिवायै सततं नम:।’ इस मन्त्र से पूजा करें। इसके बाद ‘ॐ देवक्यै नम:, ॐ वासुदेवाय नम:, ॐ बलभद्राय नम:, ॐ श्रीकृष्णाय नम:, ॐ सुभद्रायै नम:, ॐ नन्दाय नम: तथा ॐ यशोदायै नम:’ – इन नाम-मन्त्रों से सबका अलग-अलग पूजन करें।
कुछ लोग चन्द्रमा के उदय हो जानेपर चंद्रमा को अर्घ्य प्रदान कर हरि का ध्यान करते हैं, उन्हें निम्नलिखित मन्त्रों से हरि का ध्यान करना चाहिये –
अनघं वामनं शौरि वैकुण्ठ पुरुषोत्तमम।
वासुदेवं हृषीकेशं माधवं मधुसूदनम।।
वाराहं पुण्डरीकाक्षं नृसिंहं ब्राह्मणप्रियम।
दामोदरं पद्यनाभं केशवं गरुड़ध्वजम।।
गोविन्दमच्युतं कृष्णमनन्तमपराजितम।
अघोक्षजं जगद्विजं सर्गस्थित्यन्तकारणम।।
अनादिनिधनं विष्णुं त्रैलोक्येश त्रिविक्रमम।
नारायण चतुर्बाहुं शंखचक्रगदाधरम।
पीताम्बरधरं नित्यं वनमालाविभूषितम।
श्रीवत्सांग जगत्सेतुं श्रीधरं श्रीपति हरिम।। (उत्तरपर्व 55/46 – 50)
इन मन्त्रों से भगवान् श्रीहरि का ध्यान करके ‘योगेश्वराय योगसम्भवाय योगपतये गोविन्दाय नमो नम:’ – इस मन्त्र से प्रतिमा को स्नान कराना चाहिये। अनन्तर ‘यज्ञेश्वराय यज्ञसम्भवाय यज्ञपतये गोविन्दाय नमो नम:’ – इस मंत्रसे अनुलोपन, अर्घ्य, धूप, दीप आदि अर्पण करें। तदनंतर ‘विश्वाय विश्वेश्वराय विश्वसम्भवाय विश्वपतये गोविन्दाय नमो नम:।’ इस मन्त्र से नैवेद्य निवेदित करें। दीप अर्पण करने का मन्त्र इसप्रकार हैं – धम्रेश्वराय धर्मपतये धर्मसम्भवाय गोविन्दाय नमो नम:।’
इसप्रकार वेदी के ऊपर रोहिणी-सहित चन्द्रमा, वसुदेव, देवकी, नन्द, यशोदा और बलदेवजी का पूजन करें , इससे सभी पापों से मुक्ति हो जाती हैं। चंद्रोदय के समय इस मन्त्र से चंद्रमा को अर्घ्य प्रदान करें –
क्षीरोदार्नवसम्भूत अत्रिनेत्रसमुद्भव।
गृहनार्घ्य शशाकेंदों रोहिण्या सहितो मम।। (उत्तरपर्व 55/54)
आधी रात को गुड़ और घी से वसोर्धारा की आहुति देकर षष्ठीदेवी की पूजा करें। उसी क्षण नामकरण आदि संस्कार भी करने चाहिये। नवमी के दिन प्रात:काल मेरे ही समान भगवती का भी उत्सव करना चाहिये। इसके अनन्तर ब्राह्मणों को भोजन कराकर ‘कृष्णो में प्रीयताम’ कहकर यथाशक्ति दक्षिणा देनी चाहिये।
धर्मनंदन! इसप्रकार जो मेरा भक्त पुरुष अथवा नारी देवी देवकी के इस महोत्सव को प्रतिवर्ष करता हैं, वह पुत्र, सन्तान, आरोग्य, धन-धान्य, सदगृह, दीर्घ आयुष्य और राज्य तथा सभी मनोरथों को प्राप्त करता हैं। जिस देश में यह उत्सव किया जाता है, वहाँ जन्म-मरण, आवागमन की व्याधि, अवृष्टि तथा ईति-भीती आदि का कभी भय नहीं रहता। मेघ समयपर वर्षा करते हैं। पांडूपुत्र! जिस घर में यह देवकी-व्रत किया जाता हैं, वहाँ अकालमृत्यु नहीं होती और न गर्भपात होता हैं तथा वैधव्य, दौर्भाग्य एवं कलह नहीं होता। जो एक बार भी इस व्रत को करता हैं, वह विष्णुलोक को प्राप्त होता है। इस व्रत के करनेवाले संसार के सभी सुखों को भोगकर अंत में विष्णुलोक में निवास करते हैं।
इति श्री भविष्यपुराण का उत्तरपर्व का चौवीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ।

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