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एक कविता – “अतिरंजन”

“अतिरंजन”
काली काली जुल्फें तेरी
नागिन जैसी बल खाती।
उमड़ घुमड़ कर जैसे बदली नीर धरा पर छलकाती।।
धरती प्यासी अम्बर जाने घनघोर घटाएं घुमड़ रही।
मेरे मन में बिजली कड़के
जोर भावना उमड़ रही।।
प्यासे अधर अधीर तुम्हारे
धीर धरो तुम कामांगी।
करो कामना अनंग काम की
रतिनाथ की बामांगी।।
लोल लोल लोचन लहरी सी
कंचन काया कोमलाङ्गी।
भर्मर पागल तेरे ऊपर खुशबू
पाकर मधुरांगी।।
तुम रंजना हो रंजन करती
अतिरंजन स्वीकार नहीं।
रतिकुमारी बसंत ऋतु में
कहना अब इनकार नहीं।।
किशन खंडेलवाल, भुवनेश्वर

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