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संस्मरण- ज्ञान की ज्योति जलाने में माहिर थे स्वतंत्रा सेनानी स्वर्गीय प्रह्लाद राय लाठ

  •  आज भी याद की जाती है उनके समय की दिवाली

अशोक कुमार पांडेय, भुवनेश्वर
कहते हैं कि सज्जन जिस रास्ते पर चल पड़ते हैं, उस रास्ते पर बिना सोचे-समझे पूरा समाज चल पड़ता है. ओडिशा मारवाड़ी समाज के पहले ‘वीरपुत्र’ से अलंकृत स्वर्गीय प्रहलाद राय लाठ का पूरा जीवन ही सनातनी परम्पराओं के अनुपालन का यथार्थ आदर्श था. उन्होंने अपने जीवन में परिवार से लेकर समाज के बीच ज्ञान की ज्योति जलायी. संस्कारों और संस्कृति के अनुपालन के लिए लोगों को प्रेरित किया. उनका जन्म ओडिशा के संबलपुर में 27 फरवरी,1907 में एक कुलीन तथा धनाढ्य व्यवसायी परिवार में हुआ था. तदोपरांत वे कटक आ गये. उनके स्वर्गीय पुत्र ओमप्रकाश लाठ भी उन्हीं की तरह हरप्रकार से एक आध्यात्मिक पुरुष रहे. विरासत में मिली संस्कार और संस्कृति का पालन करते हुए खुले दिल से बड़े आकर में दीवाली-पूजन कराते थे तथा प्रीति भोज और दान आदि दिया करते थे.

सत्संगति में पल-बढ़कर वे एक ईश्वरभक्त बालक बने

भुवनेश्वर निवासी संजय लाठ जो स्वर्गीय प्रह्लाद राय लाठ के नाती हैं, ने बताया कि उनके दादाजी और पिताजी बड़े ही धर्मात्मा थे. उनको बाल्यकाल से ही वे सनातनी पर्व-त्योहारों के मनाये जाने का बड़ा शौक था. उन दिनों लाठ-परिवार की दिवाली देखने सभी आते थे. उन दिनों कटक एक व्यापारी केन्द्र था, जहां पर लगभग 500 मारवाड़ी घर थे. जिन घरों में दिवाली बड़े धूमधाम के साथ मनाई जाती थी. बड़े आकर में मनाई जाती थी. संजय लाठ ने बताया कि जब वे 10-12 साल के थे, तभी से उनके घर में मिट्टी के दीपक से दिवाली मनाने की परम्परा उन्होंने देखी है. उनके दादाजी स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय प्रह्लाद राय लाठ को रामायण, महाभारत, गीता और श्रीमद्भागवत आदि के अध्ययन का शौक बाल्यकाल से ही था. सत्संगति में पल-बढ़कर वे एक ईश्वरभक्त बालक बने. संजय लाठ ने बताया कि जब वे 10-12 साल के थे उनको उनके दादाजी स्वर्गीय प्रह्लाद राय लाठ जी दिवाली की कहानी उन्हें सुनाया करते थे कि किस प्रकार से सादगी और सद्भावना के साथ दिवाली मनाई जानी चाहिए. उसे अपने घर में मनाकर सबों को दिखाया करते थे. उन दिनों उनके दादाजी दिवाली के दिन सबसे पहले अपने सगे-संबंधी,आप-पड़ोस के लोगों को शाम के वक्त सादर आमंत्रिकर उन्हें अपने हाथों से पुआ-पकवान खिलाया करते थे. गरीबों को भोजन कराकर उन्हें यथोचित दान आदि भी दिया करते थे. पूजक ब्राह्मण उनसे अति प्रसन्न रहते थे. दिवाली के दिन पूरे दिनभर पूजा चलती थी. घर के सभी छोटे अपनों से बड़ों का आशीर्वाद लेते थे. संजय लाठ के अनुसार घर और आसपड़ोस की सफाई का काम एक महीना पूर्व से आरंभ हो जाता था तथा अपने घरों की रंगाई आदि तो दो महीने पहले ही पूरी हो जाती थी. घर के बच्चों को पूरी सादगी तथा सावधानी के साथ दिवाली मनाने का वे निर्देश देते थे. उन दिनों भी बच्चों के लिए पटाखे फोड़ने तथा फूलझड़ियां लगाने की परम्परा थी, लेकिन स्वर्गीय प्रह्लाद राय लाठ अपने घर के बच्चों को केवल फूलझड़ियां जलाने की ही इजाजत देते थे. कार्तिक महीने के विषय में वे बताते थे कि यह महीना सबसे पवित्रतम महीना होता है जिसमें घर के बड़े-बुजुर्गों के साथ-साथ बच्चों को भी प्रतिदिन अपने दैनिक कार्यो से निवृत्त होकर पवित्र स्नान करना चाहिए. उनके अनुसार कार्तिक माह में घर के गुबज के ऊपर आकाशदीप अवश्य लगाना चाहिए, जिसमें पूरे माह सायंकाल दीपक में तेल डालकर उसे जलाकर उसे ऊपर कर देना चाहिए. प्रतिदिन जगन्नाथ भगवान की पूजा करनी चाहिए तथा पवित्र मन से अपने सभी काम करना चाहिए.

वीरता के क्षेत्र में स्थापित की अपनी छवि
संजय लाठ ने बताया कि उनके दादाजी एक सच्चे देशभक्त भी थे.सच तो यह भी है कि ओडिशा की पावन धरती पर अनेक ओड़िया ‘वीरपुत्रों’ का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्होंने भारत की आजादी में अपनी अहम् भूमिका निभाई जिनमें उत्कलमणि पण्डित गोपबंधु दास,उत्कल गौरव मधुसूदन दास,डा राधानाथ रथ,रमादेवी,नेताजी सुभाष चंद्र बोस, पण्डित गोवर्द्धन मिश्र, स्वर्गीय नवकिशोर चौधरी, डा हरेकृष्ण मेहताब,फकीर मोहन सेनापति, विश्वनाथ दास,वीर सुरेन्द्र साई और ओडिशा के लौहपुरुष बीजू पटनायक आदि का नाम बड़े आदर के साथ आज भी अमर है. उन समस्त वीरपुत्रों में ओडिशा मारवाड़ी समाज के पहले और एकमात्र ‘वीरपुत्र’ से स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय प्रह्लाद राय लाठ जी थे. उन्होंने गांधीजी की तरह ही अपने सत्य, अहिंसा, त्याग, तपस्या, अपनी सच्ची देशाभक्ति से यह सिद्ध कर दिया कि भारत की आजादी में एक व्यक्ति भी अपनी सच्ची देशभक्ति से तथा देश की आजादी के लिए बहुत कुछ कर सकता है, बशर्ते कि उसके मन में देश की आजादी के लिए सच्चा कर्तव्यबोध और शक्तिबोध हो.

13 साल की उम्र में ही आजादी की लड़ाई में कूद पड़े
बाल्यकाल से ही उनके मन में देशभक्ति तथा देशसेवा की भावनाएं उछाल मार रही थीं जिसके कारण वे अपने घरवालों से छुपकर स्वतंत्रता सेनानी लक्ष्मी नारायण मिश्र,भागीरथी पटनायक एवं चंद्रशेखर बेहरा आदि के साथ मिलकर भारत की आजादी की लड़ाई से जुड़ी अनेक सभाओं में हिस्सा लेते रहे. मात्र 13 साल की उम्र में ही स्वर्गीय प्रहलादराय लाठ आजादी की लड़ाई में पूरे आत्मविश्वास के साथ कूद पड़े. 1921 में महात्मा गांधी की भारत की आजादी का आह्वान सुनकर प्रह्लाद राय लाठ स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े. वे बालसेवा समिति, जैसी अनेक जनहितकारी समितियों का कुशल नेतृत्व किये. उनकी पत्नी स्वर्गीय रुक्मणी देवी भी आजादी की लड़ाई में महिलाओं को संगठित करने हेतु नारी सेवा समिति का गठन कर अपनी अहम् भूमिका निभाईं.

1930 में संबलपुर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने
स्वर्गीय प्रहलाद राय लाठ 1930 में संबलपुर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने. 1937 में वे ओडिशा विधानसभा के लिए वे निर्वाचित हुए. 1934 में दूसरी बार जब गांधीजी संबलपुर आये तो उनके आह्वान पर उन्होंने अपनी सच्ची देशभक्ति की बेजोड़ मिसाल प्रस्तुत की. उनकी पत्नी रुक्मिणी देवी ने अपना लगभग 300 तोला सोना हरिजन कल्याण के लिए स्वेच्छापूर्वक दान कर दिया. 1937 में ही गांधी जी के आह्वान पर स्वर्गीय प्रहलाद राय लाठ ने विधानसभा से त्यागपत्र देकर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े. 4 दिसंबर,1940 में उनको अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया. उनको ब्रह्मपुर जेल भेज दिया गया. वे हरिजन सेवासंघ,चरखा संघ से भी जुड़े रहे.

भारत छोड़ो आन्दोलन में खुलकर सामने
1942 में वे भारत छोड़ो आन्दोलन में खुलकर सामने आये. 1944 में उन्होंने पुणे आगाखां पैलेस कस्तुरबा मेमोरियल के लिए 75 हजार रुपये का अनुदान दिया. 1944 में संबलपुर में स्वतंत्रता सेनानी प्रभावती देवी के बाल निकेतन नामक अनाथ आश्रम के लिए उन्होंने एक लाख का अनुदान दिया. वे हरजिन सेवक संघ से भी जुड़े रहे. 26 मई, 2001 को उनका निधन हो गया. आज भी कटक उत्कल साहित्य समाज के ओडिशा के वीर पुत्रों में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है. सच कहा जाये तो स्वर्गीय प्रह्लाद राय लाठ की दिवाली की आरंभ की गई सही परम्परा तथा उनकी सच्ची देशभक्ति आज भी अमर है.

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