( 1 )
पिघलने लगी रात,
आहिस्ता-आहिस्ता !
झरने लगे कलम से,
स्याही के कतरे !
खो गयी शब्दों की भीड़,
ढालती रात के साथ !
अवशेष रहा शून्य— महाशून्य !!
( 2 )
आँकड़ों का गहरा जाल है,
जोड़-घटाव-गुणा-भाग !
उलझा रहता है जीवन,
इनके ताने-बनाने में !
देखती हूँ दूर तक,
शून्य ही तो है,
शाश्वत सत्य !!
( 3 )
कहो ! कहाँ नहीं शून्य है,
जल-थल-अम्बर में !
पग-पग मायाजाल है,
सत्य छिपा निज अन्तर में !
यही तो है पर्यायवाची शून्य का !!
( 4 )
मैंने उससे कहा,
जब भी जाओ,
थोड़ा-सा शून्य मुझे दे जाना,
और उतना ही वापस ले जाना !
वरना जीवन भर सताएँगे,
हम को ये निष्ठुर आँकड़े !!
( 5 )
शून्य नहीं होता है,
अभिशप्त कभी !
देख लेना बुलाकर,
प्रेम से तुम !
निभाता है साथ,
जीवन भर !!
✍️ पुष्पा सिंघी , कटक