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ओडिशा में आसान नहीं कांग्रेस की डगर

  • साल 2019 के बाद हुए आठ उपचुनावों में से सात में हुई जमानत जब्त

  • साल 2004 के बाद से लगातार गिरा वोट प्रतिशत

  •  2019 में तीसरे स्थान पर खिसकी पार्टी, केवल 17.02 प्रतिशत वोट हुए हासिल

भुवनेश्वर। ओडिशा की राजनीतिक गलियारे में कांग्रेस की डगर आसान नहीं है। आंकड़ों और जनाधार की गुणागणित में कांग्रेस पार्टी ओडिशा में तीसरे नंबर पहुंच गई है और हर हार के बाद अंदरूनी कलह का जिक्र उभर सामने आया है।

देश में भाजपा और मोदी की लहर आने के बाद से साल 2019 से हुए उपचुनाव के नतीजे ओडिशा में कांग्रेस पार्टी की कमजोरियों को उजागर कर रहे हैं। ओडिशा में कांग्रेस दिन-ब-दिन कमजोर होती जा रही है। कांग्रेस पार्टी वापसी के लिए संघर्ष कर रही है।

आंकड़े बताते हैं कि राज्य में साल 2019 के बाद हुए आठ उपचुनावों में सिर्फ एक ब्रजराजनगर को छोड़कर सभी मुकाबलों में पार्टी के उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई है। बीजेपुर, पिपिलि, बालेश्वर सदर, तिर्तोल, धामनगर, पदमपुर और झारसुगुड़ा के उपचुनावों में उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई है।

वोट शेयर में लगातार गिरावट आई

इतना ही नहीं भारतीय निर्वाचन आयोग के आंकड़ों से पता चलता है कि राज्य में कांग्रेस के वोट शेयर में लगातार गिरावट आई है। पार्टी ने साल 2004 तक 38 प्रतिशत हासिल किया था, जो साल 2009 के चुनावों में 29.11 प्रतिशत पर और साल 2014 में 25.74 प्रतिशत तक गिर गया। साल 2019 तक कांग्रेस ओडिशा में दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी थी, लेकिन इस साल हुए चुनाव में पार्टी तीसरे स्थान पर खिसक गई। साल 2019 में कांग्रेस को केवल 17.02 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे।

विधायकों की संख्या भी घटी

आंकड़ों के अध्ययन से पता चलता है कि साल 2004 में 147 सदस्यीय राज्य विधानसभा में 38 सीटें कांग्रेस के पास थीं और वर्तमान विधानसभा में कांग्रेस के केवल नौ सदस्य हैं। पार्टी ने साल 2009 और साल 2014 के चुनावों में क्रमशः 27 और 16 सीटें जीती थीं। इसके बाद साल 2019 में कांग्रेस ने ओडिशा विधानसभा में मुख्य विपक्ष का दल का पद भी खो दिया। भाजपा ने 2019 के चुनाव में 23 सीटें जीत कर मुख्य विपक्षी दल बन गई।

संसद में प्रतिनिधित्व घटा

कांग्रेस पार्टी का ओडिशा से संसद में भी प्रतिनिधित्व घटा है। कांग्रेस ने साल 2009 में राज्य में छह लोकसभा सीटें जीती थीं। साल 2014 में एक भी नहीं जीत पाई और साल 2019 के लोकसभा चुनावों में पार्टी सिर्फ एक सीट (कोरापुट) जीतने में सफल रही।

निकाय और पंचायत चुनावों में भी खराब प्रदर्शन

विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में हुआ खराब प्रदर्शन पिछले साल फरवरी और मार्च में शहरी स्थानीय निकाय और पंचायत चुनावों में भी देखने को मिला। त्रिस्तरीय पंचायतीराज संस्थाओं के चुनाव में 30 जिलों में से 18 जिलों में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली। इन चुनावों में 2.10 करोड़ वैध वोट डाले गए थे, जिसमें से कांग्रेस को 28.54 लाख वोट (13.57%) मिले। शहरी चुनावों में कांग्रेस पार्टी 109 शहरी स्थानीय निकायों में से केवल 7 में अध्यक्ष की सीट जीतने में सफल रही।

नेताओं की भगदड़ पार्टी को महंगी पड़ी

बताया जाता है कि पार्टी से नाराज होने वाले नेताओं के दूसरे दल में जाने से पार्टी को काफी मंहगी पड़ी। साल 2019 के बाद से तत्कालीन विधायक नव किशोर दास (जिनकी 29 जनवरी, 2023 को हत्या कर दी गई थी), आदिवासी नेता प्रदीप मांझी, पूर्व केंद्रीय मंत्री श्रीकांत जेना सहित पार्टी के कई बड़े नेताओं ने संगठन छोड़ दिया है। रणनीति और संसाधनों की कमी के कारण, जमीनी स्तर पर पार्टी के कार्यकर्ता या तो अन्य दलों (बीजद या भाजपा) में शामिल हो गए या चुप बैठे रहे। कांग्रेस के वोट अब बीजद या भाजपा को जा रहे हैं।

गुटबाजी ने भी पार्टी को कमजोर किया

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मनना है कि गुटबाजी, कमजोर संगठन, घटिया रणनीति, संसाधनों की कमी, विश्वसनीय नेतृत्व की कमी, अंदरूनी कलह और लोगों को जोड़ने वाले कार्यक्रमों की कमी ने पार्टी को काफी नुकसान पहुंचाया है और इसी कारण कांग्रेस पार्टी को इस मुकाम तक पहुंचाया है। हाल ही में एक जनसभा में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता चिरंजीब बिस्वाल ने खुलकर कहा था कि कांग्रेस अब पहले जैसी नहीं रही और साल 2000 के बाद पैदा हुए लोग नवीन पटनायक के अलावा किसी को नहीं जानते। कांग्रेस की प्रदेश इकाई अब तक ऐसे लोगों तक पहुंचने में विफल रही है। उन्होंने कहा था कि ओपीसीसी में कोई नेतृत्व नहीं है और पार्टी सिर्फ नाम के लिए उपचुनाव लड़ रही है। बिस्वाल ने कहा कि ओडिशा कांग्रेस में केवल नौ विधायक हैं, लेकिन 20 सीएम के चेहरे हैं। बिस्वाल की यह टिप्पणी ओडिशा में कांग्रेस की ताकत और स्थिति के बारे में बहुत कुछ बताती है।

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