दरिंदगी की शिकार होने के बाद जब बेटियां अस्पताल में ज़िंदगी और मौत से जूझ रही होती हैं, तब भी कोई नेता उस बेटी और उसके परिवार का हालचाल पूछने तक नहीं जाता है, लेकिन जैसे ही वह बेटी तिल तिल के मर जाती है, वैसे ही नेताओं की झूठी, दिखावटी और छलावे की दया व न्याय की मांग शुरू हो जाती है. यह कब तक चलेगा…!!!
वोटों की सियासत इतनी घिनौनी हो सकती है, इसकी कल्पना शायद हमारी पूर्वजों और संविधान निर्माताओं ने भी नहीं की होगी. किसी बेटी की आबरू लूट जाती है, निर्मम हत्या हो जाती है, पूरा परिवार टूट और बिखर जाता है, लेकिन उस बेटी और उसके परिवार को न्याय के नाम पर डर, भय, यातनाएं और नेताओं की ड्रामेबाजी मिलती है. जब तक बेटियों को दरिंदों से डराने, धमकाने और जलील करने की शिकायतें मिलती हैं, तब तक कोई भी नेता, चाहे वो किसी भी पार्टी का हो और किसी भी राज्य का हो, उसके सुरक्षा के लिए उसके कान में जूं तक नहीं रेंगता है. वहां का लोकल शासन-प्रशासन की आंखें भी पूरी तरह से नहीं खुलती हैं. यहां तक कि दरिंदगी की शिकार होने के बाद जब बेटियां अस्पताल में ज़िंदगी और मौत से जूझ रही होती हैं, तब भी कोई नेता उस बेटी और उसके परिवार का हालचाल पूछने तक नहीं जाता है, लेकिन जैसे ही वह बेटी तिल तिल के मर जाती है, वैसे ही नेताओं की झूठी, दिखावटी और छलावे की दया व न्याय की मांग शुरू हो जाती है. न्याय की मांग इतनी बुलंद हो जाती है कि वह बेटी कब जात पात में बंट जाती पता ही नहीं चलता है. मेरी नजर में ये नेताओं की न्याय की मांग नहीं, बल्कि बेटियों की अर्थी पर वोटों की सियासत शुरू होती है. और वोटों की सियासत में नेताओं का ऐसा नंगा नाच चलता है कि लोकतंत्र भी शर्मसार हो जाता है. बेटी चाहे यूपी की हाथरस की हो या राजस्थान की बारां की, दिल्ली की हो या फिर हरियाणा, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, केरल या किसी भी प्रदेश की हो, नेताओं की मंशा किसी भी बेटी की न्याय की नहीं होती है. उनकी मंशा और उनकी नज़र तो वोट बैंक की सियासत पर होती है.
यदि वास्तव में बेटियों और महिलाओं की सुरक्षा पर किसी भी पार्टी या किसी भी नेता को इतनी चिंता होती या ये नेता इतने संवेदनशील होते तो वे अपने अपने क्षेत्रों में, पंचायत, जिला और राज्य स्तर पर इतने सजग होते की इस प्रकार के जघन्य अपराध होते ही नहीं. अगर लोकल स्तर पर शाशन-प्रशासन संवेदनशील होकर काम करता तो किसी की हिम्मत नहीं होती कि बहन बेटियों और महिलाओं के साथ कोई भी इतनी घिनौनी हरकत कर सके. पर अफसोस कि ना तो नेताओं में संवेदना बची है और ना ही कानून के रखवाले सही ढंग से अपनी जिम्मेदारियों को कभी निभा पा रहे है. आइये अब चलते हैं हाथरस. जहां पर एक बेटी ने तिल तिल कर अपनी जान गंवा दी और उसकी किस्मत ऐसी की परिवार उसकी अंतिम संस्कार भी नहीं कर सकी. रात के ढाई बजे वहां के प्रशासन ने उसको जला दिया.
आखिर प्रशासन को अंतिम संस्कार करने की इतनी भी क्या जल्दबाजी थी? इसका जवाब तो शासन प्रशासन और योगी सरकार को देना ही पड़ेगा. यदि कानून व्यवस्था ख़राब होने के डर से सारे नियम, कानून और धर्म को ताक पर रखकर उस बेटी को आधी रात में दफन कर दिया तो फिर वो कानून व्यवस्था किस काम का जो सुबह तक लाश की हिफाज़त नहीं कर सकती थी. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने चाहे भले ही डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट सहित अनेक पुलिसकर्मियों को सस्पेंड कर दिया हो, लेकिन उनको कारण तो बताना ही पड़ेगा. दूसरी तरफ हाथरस की बेटी को इंसाफ दिलाने के नाम पर कांग्रेस पार्टी और अन्य विपक्षियों का वोटों की सियासी ड्रामा जारी है. कोरोनकाल में भी इनकी असंवेदनशीलता और असावधानी जारी है. सड़कों पर नंगा नाच कर रहे हैं. कोरोना संक्रमण को अधिक से अधिक निमंत्रण देने वाले कार्य कर रहे हैं. सड़कों पर ट्रैफिक से जनता को घंटों बंधक बनाने वाले राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और अन्य नेताओं में अगर हाथरस की बेटी को न्याय दिलाने की वास्त में मंशा होती तो वे एक-एक कर के पीड़ित परिवार से मिलने की कोशिश करते. या फिर ये लोग भूख हड़ताल और अनसन पर किसी एक जगह बैठ जाते. लेकिन इन्हें तो न्याय के नाम पर अपनी राजनीति चमकानी है. पर याद रहे कि इस तरह की खोखली ड्रामेबाजी से सत्ता सुख नहीं मिलने वाली है.
जनता के सभी नुमाइंदों को अब संवेदनशील होना चाहिए. जनता की भावनाओं से अपनी सियासी खेल को बंद करना चाहिए. आखिर ऐसा कब तक चलेगा कि कांग्रेस शासित राज्य में जब किसी बेटी की आबरू तार तार हो तो भाजपा और अन्य पार्टियां न्याय के नाम पर वोट बैंक की सियासत करेगी? और भाजपा शासित राज्य में जब यह घटना घटे तो कांग्रेस और अन्य पार्टियां सियासी ड्रामा करेगी.
क्या कम से कम महिलाओं की सुरक्षा और आतंकवाद जैसे संवेदनशील मुद्दों पर सभी राजनीतिक पार्टियां एक होकर न्याय और सुरक्षा के लिए काम नहीं कर सकती हैं? ठीक उसी प्रकार जब नेताओं की सैलरी बढ़ानी होती है तो एकमत से राज्यों के विधानसभाओं में और लोकसभा में खुशी खुशी एकमत से बिल पारित हो जाता है और सबकी सैलरी बढ़ जाती है? या फिर किसी राज्य में या केंद्र में सरकार बनानी होती है तो पीछे की सारी दुश्मनी भुलाकर गठबंधन हो जाता है और सरकार बन जाती है? देशहित और महिलाओं के हक के लिए पार्टियों की ऐसी एकजुटता भी हो सकती है, जनाब यदि कभी ईमानदारी से अमल किया जाए तो. फिलहाल हाथरस के गुनहगारों को ऐसी सजा मिलनी चाहिए जो एक उदाहरण बनें और अपराधियों के मन में ऐसा खौफ बैठ जाए कि अपराध करने से पहले वे लाखों बार अपने अंजाम के बारे में सोंचे.