-
मंदिर समिति, पुजारी, कुल पुरोहित और ग्रामीण की उपस्थिति में तय हुआ कपाट खुलने का दिन
-
मंदिर के कपाट बैसाख के महीने पूर्णिमा को खुलते हैं और छह माह बाद मंगशीर्ष पूर्णिमा को बंद कर दिए जाते हैं
गोपेश्वर, हिमालय की गोद में सीमांत उत्तराखंड के जनपद चमोली के देवाल ब्लाक में आठ हजार फीट की ऊंचाई में बसा बेहद खूबसूरत हिमालय का अंतिम गांव है वाण गांव, जहां विराजमान हैं सिद्ध पीठ लाटू देवता का पौराणिक मंदिर।
मंदिर समिति, पुजारी, कुल पुरोहित और ग्रामीण की उपस्थिति में रविवार को लाटू देवता के कपाट खुलने का दिन तय हुआ है। इसमें आगामी पांच मई बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर लाटू देवता के कपाट आगामी छह माह के लिए आम श्रद्धालुओं के लिए खोले दिये जाएंगे। इसके बाद श्रद्धालु छह महीने तक लाटू देवता की पूजा अर्चना कर सकते हैं।
पूर्व क्षेत्र पंचायत सदस्य हीरा सिंह पहाड़ी ने बताया कि ग्रामीणों ने मुख्यमंत्री और पर्यटन मंत्री को लाटू देवता के मंदिर के कपाट खुलने के अवसर पर निमंत्रण भेजा है। पर्यटन मंत्री ने मेले में शिरकत करने की हामी भर दी है। उन्होंने बताया कि इस अवसर पर लाटू मंदिर में एक दिन का बोरी मेला भी हर वर्ष की भांति भव्य रूप से होगा।
बैठक में लाटू देवता के पुजारी खीम सिंह नेगी, हरिदत्त कुनियाल, रमेश कुनियाल, उमेश चंद्र कुनियाल, लाटू मंदिर समिति के उपाध्यक्ष हीरा सिंह पहाडी, जागर गित्योर हुकुम सिह, अवतार सिंह, खिलाफ सिंह, देवेंद्र सिंह पंचोली, महिला मंगल दल अध्यक्ष नंदी देवी, क्षेत्र पंचायत सदस्य रामेश्वरी देवी, ढोल वादक बखतावर राम, भवान राम सहित अन्य लोग उपस्थित रहे।
ये है मान्यता-
कहते हैं कि भक्त की एक ही पुकार पर भगवान दौड़े चले आते हैं, लेकिन भगोती नंदा के धर्मभाई और भगवान शिव के साले लाटू की माया ही निराली है। लाटू देवाल क्षेत्र (चमोली) के ऐसे देवता हैं, जिनके दर्शन भक्त तो दूर, खुद पुजारी भी नहीं कर सकता। मंदिर के कपाट बैसाख के महीने पूर्णिमा को खुलते हैं और छह माह बाद मंगशीर्ष पूर्णिमा को बंद कर दिए जाते हैं। मंदिर के अंदर क्या है, यह किसी को नहीं मालूम। मंदिर के पुजारी भी आंख पर पट्टी बांध कर पूजा अर्चना करते हैं।
लाटू देवता पूरे पिंडर, दशोली (आंशिक) क्षेत्र के ईष्टदेव हैं। माना जाता है कि लाटू कन्नौज के गर्ग गोत्र के कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। जब शिव के साथ नंदा का विवाह हुआ तो बहन को विदा करने सभी भाई कैलाश की ओर चल पड़े। इनमें लाटू भी शामिल थे। मार्ग में लाटू को इतनी तीस (प्यास) लगी कि वह पानी के लिए इधर-उधर भटकने लगे। इस बीच उन्हें एक घर दिखा और वो पानी की तलाश में इस घर के अंदर पहुंच गए। घर का मालिक बुजुर्ग था, सो उसने लाटू से कहा कि कोने में रखे मटके से खुद पानी पी लो। संयोग से वहां दो मटके रखे थे। लाटू ने उनमें से एक को उठाया और पूरा पानी गटक गए। प्यास के कारण वह समझ नहीं पाए कि जिसे वह पानी समझकर पी गए, असल में वह मदिरा थी। कुछ देर में मदिरा ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया और वह उत्पात मचाने लगे। इसे देख नंदा क्रोधित हो गईं और लाटू को कैद में डाल दिया। जहां भगवान लाटू कैद में रहे। कालांतर में वही स्थान उनके मंदिर के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
पौराणिक लोकगीतों और जागरों में यह मान्यता है कि एक बार भगवती नंदा और उनके साथ कैलाश जाने वाले लोग वाण से आगे रणकधार से कैलाश जाने का रास्ता भटक जाते हैं, जिसके बाद मां भगवती लाटू का स्मरण करती हैं और फिर आगे जाने का रास्ता प्रशस्त हो पाता है। तत्पश्चात मां भगवती लाटू भगवान से आग्रह करती हैं कि जब भी 12 बरस में वो कैलाश को जाएंगी तो वाण से आगे लाटू भगवान ही कैलाश तक उनकी यात्रा की अगुवाई करेगा। तब से लेकर आज तक वाण गांव से नंदा देवी राजजात यात्रा की अगुवाई भगवान लाटू ही करते हैं। दूर-दूर से श्रद्धालु अपनी मनोकामना लेकर लाटू के मंदिर में आते हैं। कहते हैं यहां से मांगी मनोकामना जरूर पूरी होती है।
भाई बहन के मिलन से छलछला जाती हैं आंखें-
हिमालयी महाकुंभ नंदा देवी राजजात यात्रा में बारह बरस बाद जब नंदा मायके (कांसुवा) से ससुराल (कैलाश) जाते हुए वाण पहुंचती हैं, तब इस दौरान नंदा का अपने धर्म भाई लाटू से भावपूर्ण मिलन होता है। इस दृश्य को देख यात्रियों की आंखें छलछला जाती हैं। यहां से लाटू की अगुवाई में चैसिंग्या खाडू के साथ राजजात होमकुंड के लिए आगे बढ़ती है। लेकिन, वाद्य यंत्र राजजात के साथ नहीं जाते, वहीं मान्यता है कि वाण में ही लाटू सात बहनों (देवियों) को एक साथ मिलते हैं। यहीं पर दशोली (दशमद्वार की नंदा), बंड भूमियाल की छंतोली, लाता पैनखंडा की नंदा, बद्रीश रिंगाल छंतोली और बधाण क्षेत्र की तमाम भोजपत्र छंतोलियों का मिलन होता है। अल्मोड़ा की नंदा डोली और कोट (बागेश्वर) की श्री नंदा देवी असुर संहारक कटार (खड्ग) वाण में राजजात से मिलन के पश्चात वापस लौटती है।
साभार -हिस