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लघु कविताएं : शरद पूर्णिमा

( 1 )
छलक गया नभ से,
अमृत घट,
शरद पूर्णिमा की रात,

मुस्कुरा उठी हौले-से वह,

ना जाने किसकी छवि,
देख ली उसने,
शीतल सुमधुर चंदा में !!

( 2 )
चारु चंद्र की चंचल किरणें,
थिरक रहीं हैं वसुधा पर,

यूँ ही चमकती-दमकती हैं सदा ये,
सदियाँ गयी गुजर,

नहीं होते ना इन के,
ह्रास के प्रहर,
नहीं होता ना इन पर,
उम्र का असर !!

( 3 )
बहती रही नभ से,
चांदनी की नदी,

भींगा है कोमल हृदय,
कहीं गहरे तक,

सुनो !
सूखता नहीं है कभी स्त्रोत प्रेम का !!

( 4 )
पूरा होता है चाँद,
शरद पूर्णिमा का,

फिर क्यूँ अधूरी रह जाती है,
इस पूरे पर लिखी कविताएँ,

पूछती हूँ बार-बार,
कुछ भी ना कहकर,
मुस्कुरा देता है हौले-से,
यह सुधाकर !!

( 5 )
निहार रही है लीन हो,
मुग्धमना जोगन,
पूनमी चाँद को,

सहेज लिया है,
मन-मन्दिर ने,
इस चाँदनी रात को,

किसने कहा कि,
घनघोर है अंधियारा ??

✍️ पुष्पा सिंघी , कटक

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