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बेपटरी रेल, जिंदगी से खेल

  • नम्रता चड्ढ़ा, (लेखिका राज्य महिला आयोग की पूर्व सदस्य और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

भुबनेश्वर ,ओडिशा के बालेश्वर के निकट बाहनगा में दर्दनाक ट्रेन दुर्घटना ठीक आधा घंटा पहले उसी ट्रैक पर वंदे भारत से मैं भुवनेश्वर से कोलकाता जा रही थी। यह खबर भुवनेश्वर में मिली। मुझे लगा कि यदि आधा घंटा भी विलंब से होती तो न जाने क्या हो जाता। हर हादसे के बाद सुरक्षा, संरक्षा और रखरखाव को लेकर सवाल उठते हैं रिपोर्ट पेश होती है और कुछ रिसर्च वर्क शुरू किया जाता है। उसके बाद लोग भूल जाते हैं। इस ट्रेन दुर्घटना से रेलवे सिस्टम पर सवाल उठाए जा रहे हैं। माल ढुलाई और यात्रियों की संख्या में हुई भारी बढ़ोतरी को ध्यान में रखते हुए देश के ट्रैक नेटवर्क का तत्काल बड़े पैमाने पर पुनरुद्धार किए जाने की ज़रूरत है। हालांकि डेडिकेटेड फ्रेट कॉरीडोर के लिए अलग रेल ट्रैक से काफी कुछ अंकुश लग रहा है पर यह बहुत ज्यादा प्रभावी नहीं दिखता। इस पर और रखरखाव पर फोकस जरूरी है। बेपटरी के कारण ट्रेन दुर्घटना खतरे की घंटी होती है। अबकी बार भी यही है।
समस्या का कारण यह भी है कि रेलवे द्वारा पटरियों के स्तर में सुधार लाने की जरूरत को लंबित रखा जाता रहा। ये तथ्य बेमानी हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा 2002-03 में शुरू किए गए ट्रैकों के पुनरुद्धार की राष्ट्रीय स्तर की कवायद को लंबा वक्त गुजर चुका है। इस दौरान रेलमार्ग पर यात्रियों और माल ढुलाई में काफी बढ़ोतरी हुई है। जिसका परिणाम उनके जर्जर होने के तौर पर सामने आया है। हर दुर्घटना के बाद सरकारी बयान उसके बाद फिर सबकुछ जैसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया हो। रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव ओडिशा से ही बीजू जनता दल के समर्थन से राज्यसभा में भेजे गए।
ट्रेन के बेपटरी का यह असामान्य कारण कई सवालों को जन्म देने वाला था। सबसे पहले ट्रैक में आई गड़बड़ियों को ठीक करने के लिए रेलवे द्वारा किसी खंड पर गाड़ियों की आवाजाही को नियंत्रित करने की क्षमता ही संदेहों के घेरे में आ गई। सवाल है कि क्या परिचालनगत प्रदर्शन (ऑपरेशनल परफॉरमेंस) के लक्ष्यों और ट्रैक रखरखाव के प्रोटोकॉल एवं रेलगाड़ियों की सुरक्षा और प्रदर्शन के स्तर के बीच जमीन-आसमान का फ़र्क है। क्या रेलवे बोर्ड के इंजीनियरिंग सदस्य ने आपातकालीन मरम्मती के लिए ट्रैकों को अपने हाथ में लेने के अधिकार का त्याग कर दिया है, या बोर्ड का कोई अन्य सदस्य अवैध तरीके से इसका नियंत्रण कर रहा है, जिससे जवाबदेह नहीं ठहराया जा रहा है। रेलवे प्रबंधकों को व्यावसायिक ब्रिटिश ट्रेन ऑपरेटिंग कंपनियों की नकल करने और सुरक्षा मरम्मत के लिए ट्रैकों का अधिकार सौंपने को लेकर झगड़ालू रवैया अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। क्या डिविजनल रेलवे मैनेजर (डीआरएम) और जनरल मैनेजर (जीएम) लगातार ट्रैफिक ब्लॉक देने से इनकार कर रहे हैं जिससे ट्रैक इंजीनियरों को गड़बड़ियों को ठीक करने में देरी हो रही है, या उन्हें यह काम टालना पड़ रहा है।
निश्चित तौर पर यात्रियों की संतुष्टि पक्की करने और रेलवे की ब्रांड छवि को बनाए रखने के लिए ‘समय की पाबंदी को लेकर जीरो टॉलरेंस की नीति’ की दरकार है। क्या इस बात की अनदेखी की जा सकती है कि ऐसा करना यात्रियों की जिंदगी से खिलवाड़ से कम नहीं है, डीआरएम और जीएम स्तर के अधिकारियों पर पहले ही माल ढुलाई और यात्री परिवहन के लक्ष्यों को हासिल करने और कमाई का प्रबंधन करने का बहुत ज्यादा दबाव है। ढुलाई करने के लिए पर्याप्त सामाजिक और थोक वस्तुओं के न होने के कारण उनकी घबराहट समझ में आने वाली है। भविष्य में भारतीय अर्थव्यवस्था की चाल जैसी भी रहे, मगर वर्तमान में स्थिति यही है कि औंधे मुंह गिरी अर्थव्यवस्था के कारण रेलवे के पास ढुलाई के लिए ज्यादा घरेलू कोयला और दूसरे खनिज संसाधन नहीं है।
रेलवे की व्यावसायिक किस्मत इन थोक वस्तुओं के साथ जुड़ी है। रेलवे से बेहतर व्यावसायिक नतीजे देने की अपेक्षाएं बढ़ी हैं। साथ ही इस पर शहरों के बीच परिवहन के साधन होने की ब्रांड छवि को बनाए रखने का भी दबाव है। इन स्थितियों में डीआरएम स्तर के अधिकारी कई बार ट्रैकों में आई गड़बड़ियों या उनकी असुरक्षित स्थिति को छुपाने का खतरा मोल लेने के लिए प्रेरित होते रहते हैं। रखरखाव के लिए ट्रैफिक ब्लॉक देने से इनकार करने के कारण आपातकालीन मरम्मती कार्यों के लिए भी रेलवे ट्रैक पूरी तरह से इंजीनियरों के अधिकार में नहीं आता। ऐसे में इंजीनियरों का काम खतरनाक तरीके से रोमांचकारी हो सकता है। ओडिशा हादसा भी कमोबेश ऐसी ही हीलाहवाली का नतीजा हो सकता है। ढांचागत मसलों पर ध्यान दिया जाना ज्यादा जरूरी है। टूटी हुई रेल पटरियों और रेलवे ट्रैक की अन्य गड़बड़ियों के कारण होने वाले रेल हादसे इस बात का संकेत देते हैं कि रेलवे ट्रैक नेटवर्क क्षमता से ज्यादा परिवहन के बोझ से पिस रहा है। सिर्फ ट्रैक रीनोवेशन ही इसका इलाज नहीं है। इस समस्या से पार पाने के लिए वास्तव में जरूरत के अनुरूप ट्रैक मानकों में भी सुधार लाने की दरकार है।
फिरंगी हुकूमत द्वारा बिछाई गई रेल पटरियां भारत को विरासत में मिली थीं। इन पटरियों को मुख्य तौर पर सैन्य जरूरतों को ध्यान में रखकर बिछाया गया था।
परिवर्तन एक ही आया कि पहले के मीटर गेज (छोटी लाइन) को ब्रॉड गेज (बडी लाइन) से बदला गया है। ऐसा करते हुए ज्यादा एक्सल भार उठानेवाली माल गाड़ियों और तेज रफ्तार वाली यात्री गाड़ियों के हिसाब से ट्रैकों के स्तर को सुधारने की ओर बहुत कम ध्यान दिया गया है। भारत में जवाहरलाल नेहरू ने ट्रेनों के आधुनिकीकरण की शुरुआत की थी। उनके बाद के प्रधानमंत्रियों ने रेल उद्योग के विकास, नई तकनीक हासिल करने या आधुनिकीकरण पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। हां, अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय पैमाने पर भारत के जर्जर ट्रैक सिस्टम और पुराने पड़ चुके रेलवे पुलों के नवीकरण और मरम्मती के लिए बड़ा निवेश करने का फैसला लिया।
माल ढुलाई और यात्रियों के बोझ में हुई भारी बढ़ोतरी के मद्देनजर देश के ट्रैक नेटवर्क का तत्काल बड़े पैमाने पर पुनरुद्धार किए जाने की जरूरत है। साथ ही जरूरत के मुताबिक ट्रैकों के स्तर को बेहतर किए जाने की भी दरकार है। ऐसा किए बिना ट्रैकों की स्थिति को और बिगड़ने से कोई नहीं रोक सकता। कुछ समय के लिए रेल ट्रैक के पुनरुद्धार की चर्चा हुई जरूर थी। मौजूदा रेल पटरियों के स्तर को देखते हुए पुनरुद्धार का कोई काम सिर्फ सुरक्षा को बढ़ा सकता है। इससे ट्रैकों पर गाड़ियों की गति-सीमा भी थोड़ी सी ही बढ़ सकती है। ट्रैकों के स्तर को सुधारने के लिए कम मात्रा में किए गए ऐसे निवेश से होने वाला सुधार भी बहुत ज्यादा कारगर नहीं होगा। जाहिर है इसकी अपनी सीमाएं होंगी।
दूसरे शब्दों में कहें, तो इससे एक ही ट्रैक सिस्टम पर पर ज्यादा तेज गति की यानी 160 किलोमीटर प्रति घंटा से ज्यादा रफ्तार वाली (हाई स्पीड) ट्रेनें और 25 टन एक्सल लोड वाली माल गाड़ियों को एक साथ चलाने में कोई मदद नहीं मिलेगी। 25 टन एक्सल लोड वाली माल गाड़ियों को 160 किलोमीटर प्रति घंटा से ज्यादा चलने वाली ट्रेनों के साथ मिलाना हादसे को खुली दावत देने के अलावा और कुछ नहीं होगा।
यात्रियों को सीधे अपनी शिकायत दर्ज करने की सुविधा देना या लोगों की शिकायतों को हर समय सुलझाने की पहल काफी कामयाब साबित हुई. लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि तत्काल सैकड़ों यात्रियों की शिकायतों का निपटारा करने की अपेक्षा ने पहले से ही कर्मचारियों की कमी से जूझ रहे रेलवे पर कुछ ज्यादा ही बोझ डाल दिया है? इसका नतीजा ये हुआ कि सुरक्षा संबंधी अपनी प्राथमिक ड्यूटी निभाने के लिए उनके पास जरूरी वक्त नहीं बचा है। भारतीय रेल प्रति वर्ष 1,100 मिलियन टन माल का परिवहन करती है. यह काफी बड़ा आंकड़ा है। माल ढुलाई के अतिरिक्त यह हर साल 8300 मिलियन यात्रियों को सुविधा मुहैया कराती है जो दुनिया में सबसे ज्यादा है। दुनिया में सबसे ज्यादा यात्रियों को संभालने के लिए काफी बड़ी संख्या में कर्मचारियों की दरकार होती है। हर 17 यात्रियों पर एक रेलवे कर्मचारी है। पश्चिमी रेलवे, जो रेलवे का सबसे व्यस्त ज़ोन है, 40 यात्रियों पर सिर्फ एक कर्मचारी है।
सरकार ने हर संभव तरीके से समर्पित माल गलियारे (डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर) (डीएफसी) के दो चरणों को तीव्र गति से पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराया है।
पिछले साल जिस तरह से रेल विकास शिविर का आयोजन किया गया, जिसमें प्रधानमंत्री ने भी शिरकत की थी उससे ऐसा लगता है कि रेलवे के आधुनिकीकरण के लिए और पूरी तरह से सुरक्षित रेल नेटवर्क का विजन सिर्फ प्रधानमंत्री के पास ही है। रेलमंत्रालय से प्राप्त आंकड़ों अनुसार जनवरी से सितम्बर 2016 तक कुल 172 रेल दुर्घटनाएं हुई हैं। इनमें से 111 रेल दुर्घटनाएं ट्रेनों के पटरियों से उतरने से हुई हैं। इसी प्रकार वर्ष 2015 में कुल 204 रेल दुर्घटनाएं हुई थीं। इनमें से 131 रेल दुर्घटनाएं ट्रेनों के बेपटरी होने के कारण हुई थीं। डिरेलमेंट की इन दुर्घटनाओं में मैकेनिकल और सिविल इंजीनियरिंग की खामियां होती हैं। कुछ मामलों में उपकरण भी फेल पाए जाते हैं। रेलमंत्री ने रेलवे बोर्ड को आदेश दिए हैं कि हर हाल में रेल दुर्घटनाएं रोकी जाएं और इसमें डिरेलमेंट की दुर्घटनाओं पर पूरी तरह से अंकुश लगाया जाए। 3 घंटे से अधिक चली बैठक में 8 उपायों को तय किया गया और इसे तत्काल प्रभाव से लागू करने के निर्देश दिए गए। रेल दुर्घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए कुछ विशेष उपाय किए गए हैं। रेल कर्मियों को प्रभावी तरीके से प्रशिक्षण देना और इसका ऑडिट। रेलवे के विभिन्न विभाग मेंटीनेंस ड्राइव चलाएंगे और सेफ्टी विभाग इसका ऑडिट करेगा। रेल लाइनों की जांच के लिए मेंटीनेंस ड्राइव। रेल कोच और रेल लाइनों की तकनीकी जांच रेल पटरियों की जांच के लिए अल्ट्रा सोनिक तकनीक का इस्तेमाल नई ट्रेनों को चलाने के लिए लाइन क्षमता और संरक्षा पहलुओं की जांच। ट्रेनों में एलएचबी तकनीक वाले कोच बढ़ाना आईसीएफ में निर्मित परंपरागत कोच में सेंटर बफिंग कपलर लगाकर दुर्घटना को रोकना है।

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