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मेरा मन बहा…! एक कविता

नीचे झाँका मैंने,
रद्दी वाले की आवाज सुनकर,
और कहा उसको,
ऊपर आने के लिए…।

देखती हूँ मैं,
मोटी रस्सी से बँधी हुई,
ढ़ेर सारी कापी-किताबें,
अरे हाँ…! पुराना वर्ष खत्म हुआ,
विद्यार्थी करेंगे अब,
नयी कक्षा में प्रवेश…।

जिन्होंने साथ दिया,
विद्या अर्जित करने में,
पेन-पेन्सिल के सहारे,
सुधियाँ संजोयी पूरे वर्ष की।

अगले पड़ाव में जाने हेतु,
प्रगति-मानक जो बनी,
वही कापी-किताबें बिक गयीं,
चंद सिक्कों में…।

सच, आज तो रद्दी बनीं,
पर उम्र के किसी पड़ाव पर,
वो याद बहुत आयेंगी,
और चाहकर भी,
न लौटा पायेंगे उन सबको,
मेरी तरह…हाँ, मेरी तरह..!!

✍🏻 पुष्पा सिंघी , कटक

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