एक कविता
अब तो बोल पड़ी है गंगा,
कितना और करोगे नंगा,
मन करता अब डूब मरूँ मैं,
पाप पुण्य क्या भेद करूँ मैं?
कितनी और बहेंगी लाशें,
जैसे जल में पड़े पताशे?
हत्यारे हैं सारे नेता,
सुधबुध अब कोई न लेता,
वोट बैंक की करें दलाली,
सारे गुंडे और मवाली,
मैं गंगा झेलूंगी कैसे?
लाशों संग खेलूंगी कैसे?
ममतामय हूँ पतितपावनी!
अब मुर्दों की बनी वाहिनी!
सारे नेता डूब मरो तुम?
मेरे देश का भला करो तुम?
कुत्ते नोंच रहे मानव को!
मुँह पे शर्म नहीं दानव को?
अबभी तुमको वोट ही चाहिए?
कोई दे दे नोट ही चाहिए?
लाशें देखो आते जाते!
इतने ही नेता मर जाते?
तब तो मैं गंगा कहलाती!
सचमुच में मैं माँ बन जाती!
मुझ को चुप रहना ही आता,
लेकिन अब सहा नहीं जाता!
शायद अब बोल पड़ी है गंगा?
माँ को क्योँ करते हो नंगा?
माँ को??????????????
किशन खंडेलवाल, भुवनेश्वर, ओडिशा