भुवनेश्वर. जीवन-मूल्यों की सूची में एक महत्वपूर्ण मूल्य है आत्मानुशासन का विकास. आत्मानुशासन का अर्थ है अपने पर अपना अनुशासन. अपने आप पर अनुशासन करने की कला विकसित होने के बाद ही दूसरों पर अनुशासन करने का अधिकार प्राप्त होता है. निज पर शासन फिर अनुशासन आचार्य श्री तुलसी द्वारा प्रदत घोष का वाच्यार्थ भी यही है. जो विद्यार्थी अपनी इच्छाओं और क्रियाकलापों पर अपना नियंत्रण रख सकता है, वह आत्मानुशासित होता है. आत्मानुशासन का विकास होने के बाद गुरुजनों का अनुशासन स्वयं कृतार्थ हो जाता है. जो विद्यार्थी समय पर सोता है, समय पर उठता है, समय पर अध्ययन करता है, समय पर भोजन करता है, अन्य सब कार्य में समय की नियमितता का ध्यान रखता है, उसके लिए अनुशासन की अपेक्षा ही नहीं रहेगी.
सामुदायिक जीवन अनुशासन के बिना नहीं चलता क्योंकि समुदाय में रहने वाले व्यक्तियों की रुचियां भिन्न होती है, काम करने की विधियां भिन्न होती है, और उद्देश्य भी भिन्न-भिन्न होते हैं. उनके लिए कोई नियम या व्यवस्था ना हो तो आपस में हितों का टकराव होता है और संघर्ष की संभावना बढ़ जाती है. ऐसी स्थिति में व्यवस्थापक या अनुशास्ता कठोरता का प्रयोग करके अनुशासन स्थापित करने का प्रयास करता है. अनुशासन और आत्मानुशासन दोनों में श्रेष्ठ क्या है? इस जिज्ञासा का समाधान महावीर-वाणी में उपलब्ध है. भगवान ने कहा – संयम और तपस्या आदि प्रशस्त प्रयोगों द्वारा मैं अपनी आत्मा पर शासन करूं, यह मेरे लिए श्रेयस्कर है. यदि ऐसा नहीं होता है तो दूसरे लोग बंधन आदि के द्वारा मुझ पर अनुशासन करेंगे. विद्यार्थी प्रारंभ से ही आत्मानुशासन का अभ्यास करता रहे तो वह जीवन की ऊंचाइयों के शिखर को छू सकता है.
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