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लेखिका – कनकप्रभा जी (तेरापंथ धर्म संघ की अष्टम् असाधारण साध्वी प्रमुख)
सफलता के अनेक सूत्र हैं. उनमें पुरुषार्थ का स्थान सर्वोपरि है. व्यवसाय, शिक्षा, अध्यात्म आदि कोई भी क्षेत्र हो, उसमें सफलता तभी मिलती है, जब व्यक्ति का अपना पुरुषार्थ होता है. उस व्यक्ति का भाग्य सो जाता है, जो पुरुषार्थ को खो देता है. मंजिल उसी को मिलती है, जो चलता रहता है. आत्म कर्तृत्व का सिद्धांत पुरुषार्थ का मूल मंत्र है. पुरुषार्थी व्यक्ति कभी निराश नहीं होता. जीवन की हर असफलता से प्रेरणा लेकर निरंतर पुरुषार्थ करने वाला व्यक्ति असंभव को भी संभव करके दिखा सकता है. पुरुषार्थ का आधार है-आत्मविश्वास. मैं शक्ति संपन्न हूं, मैं सब-कुछ कर सकता हूं, जो मेरे लिए करणीय है. मैं सब कुछ पा सकता हूं, जो मेरे लिए प्राप्य है. मैं वहां पहुंच सकता हूं, जो मेरा गंतव्य है. इस विश्वास के बल पर शक्ति का जागरण होता है, कार्य में दक्षता बढ़ती है, मन में उत्साह जागता है और गति में शीघ्रता आती है. ज्ञान, भक्ति और कर्म की समन्विति का नाम है पुरुषार्थ. दूसरे शब्दों में पुरुषार्थ का अर्थ है-शक्ति का स्फोट. आत्मा में अनंत शक्ति होती है, पर वह दबी रहती है. उसको काम में लेने का मनोभाव शक्ति-जागरण का प्रथम सोपान है जो कठिन से कठिन काम में प्रवृत्त होने का अग्रिम चरण है. श्रमनिष्ठा और संकल्प निष्ठा के द्वारा व्यक्ति अपने पुरुषार्थ को जागृत कर सकता है. जागृत पुरुषार्थ सफलता की गारंटी है. पुरुषार्थ से सफलता मिलती है, यह भी एक सापेक्ष सत्य है. सही दिशा में सही विवेक के साथ किया गया पुरुषार्थ ही निष्पत्ति लाता है. गलत दिशा में किया गया पुरुषार्थ व्यक्ति को भटका देता है. विवेक चेतना का जागरण न हो तो पुरुषार्थ वांछित परिणाम नहीं ला सकता. इसलिए दिशा-निर्धारण एवं विवेक जागरण से समन्वित पुरुषार्थ का ही मूल्य है.