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सोशल मीडियाः ‘अ’ से ‘ज्ञ’ तक जीवन सत्य की तलाश

नई दिल्ली, सोशल मीडिया को बिना सम्पादित समाचारों अथवा सामग्री का स्रोत माना जाता है। यह बहुत हद तक सच भी है कि इस बेलगाम मीडिया ने देश-दुनिया में बहुतेरे बवाल भी कराए हैं। हमारे देश में तो पोस्ट की गई सामग्री से मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद फैलने के भी उदाहरण हैं, जिनसे दंगे तक हो गए। ऐसे मंच से यदा-कदा खुशनुमा बयार की सुगंध भी आती है और लगता है कि इस माध्यम के बहुतेरे सकारात्मक प्रयोग भी हैं। अब देखिए न, जिस हिन्दी वर्णमाला के जरिए अक्षरज्ञान करता बालक प्रकृति में बिखरी चीजों से भी रूबरू होता है, उसी का प्रयोग बड़ों को भी समझाने के लिए किस दार्शनिक अंदाज में किया गया है। पहले ‘अ’ से ‘अः’ तक के अक्षर को जोड़ते हुए ईश्वर की सबसे खूबसूरत कृति यानी मनुष्य की नादानियों पर सवाल खड़ा किया गया है-
चानक / कर मुझसे / ठलाता हुआ पंछी बोला / श्वर ने मानव को तो/ त्तम ज्ञान-दान से तौला/ पर हो तुम सब जीवों में/ ष्य तुल्य अनमोल/ क अकेली जात अनोखी / सी क्या मजबूरी तुमको / ट रहे होंठों की शोख़ी / र सताकर कमज़ोरों को /अं ग तुम्हारा खिल जाता है /अ: तुम्हें क्या मिल जाता है.?
ऊपर की पंक्तियां सोशल मीडिया पर चल रही एक कविता के प्रारम्भिक अंश हैं। इस अंश में वर्णमाला के ‘स्वर’ अक्षरों (अ से अः तक) का प्रयोग किया गया है। ये प्रयोग ठीक ‘अ’ से अनार और ‘आ’ से आम की तरह हैं, पर इन अक्षरों से बने शब्दों के अर्थ बड़े गंभीर हैं। पंछी सवाल करे और मनुष्य चुप रहे, कैसे हो सकता है। जवाब के लिए वर्णमाला के शुरुआती ‘व्यंजन’ अक्षर काम आते हैं। ‘क’ से ‘ध’ अक्षर के सहारे जवाब भी दरअसल प्रश्न ही है-
हा मैंने- कि कहो / ग आज सम्पूर्ण/ र्व से कि- हर अभाव में भी/ र तुम्हारा बड़े मजे से / ल रहा है /छो टी सी- टहनी के सिरे की गह में, बिना किसी / गड़े के, ना ही किसी / कराव के पूरा कुनबा पल रहा है / ठौ र यहीं है उसमें / डा ली-डाली, पत्ते-पत्ते / लता सूरज / त रावट देता है / कावट सारी, पूरे / दि वस की-तारों की लड़ियों से / -धान्य की लिखावट लेता है।
सोशल मीडिया पर तेज गति से लाइक और शेयर ग्रहण कर रही कविता दरअसल एक पंछी और मनुष्य के मध्य वार्तालाप है। पाठक अक्षरों के क्रमशः प्रयोग से चमत्कृत होता चलता है, तो एक संदेश भी ग्रहण करता है। ‘क’ से ‘ध’ तक के मनुष्य उवाच के प्रति उत्तर में पंछी ‘न’ से ‘ज्ञ’ तक का प्रयोग करते हुए मनुष्य को लगता है कि निरुत्तर ही कर देता है-
ना दान-नियति से अनजान अरे / प्र गतिशील मानव / फ रेब के पुतलो/ ब न बैठे हो समर्थ / भ ला याद कहाँ तुम्हें/ म नुष्यता का अर्थ.? / य ह जो थी, प्रभु की / र चना अनुपम…/ ला लच-लोभ के / व शीभूत होकर / श र्म-धर्म सब तजकर / ष ड्यंत्रों के खेतों में / स दा पाप-बीजों को बोकर / हो कर स्वयं से दूर / क्ष णभंगुर सुख में अटक चुके हो / त्रा स को आमंत्रित करते / ज्ञा न-पथ से भटक चुके हो।
तो देखा आपने कि ‘अक्षर लालित्य’ का प्रयोग करते हुए इस काव्य रचना में मनुष्य को मनुष्यता की ही सीख दी जा रही है। ऐसी रचना के कवि की तलाश के भाव स्वाभावित रूप से जाग उठते हैं। पिछले साल एक फरवरी को एक जगह इस रचना को उदयभान सिंह ने पोस्ट किया है। उसके बाद से तो जैसे यह पंक्तियां हाथोंहाथ सोशल मीडिया की प्रमुख हलचल बन गई हैं। कई बार प्रयोग होते-होते किसी कवि की पंक्तियां उसी को मैसेज कर भेजी जाती हैं। हम नहीं जानते कि इस रचनाकार की सच्चाई क्या है, पर एक बात सच है कि यह जीवन सत्य की तरह है। ऐसे रचनाकार और उसकी ओर से रखे जीवन सत्य की तलाश में आप भी निकल सकते हैं।
साभार – हिस

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