हेमन्त कुमार तिवारी, भुवनेश्वर
जिस कदर देश में राजनीतिक दलों के द्वारा हिंसा की घटनाएं देखने को मिल रही हैं, वह चिंता का विषय बनती जा रही हैं. वैचारिक मतभेद हिंसा के कारण बनते जा रहे हैं. खासकर यह मतभेद उस समय ज्यादा गहरी खाई सृजित करते हैं, जब चुनाव का माहौल बनता है.
हालही में चुनाव के बाद पश्चिम बंगाल में जो परिदृश्य दिख रहे हैं, वह यह पूछने के लिए बाध्य कर रहे हैं कि आपमें और उग्रवादी संगठनों में क्या अंतर है? हालांकि इसका जवाब पाना बड़ा कठिन है, लेकिन नामुमकिन नहीं. पश्चिम बंगाल में चुनावी पश्चात हिंसा में काफी संख्या में लोगों की मौत हुई है. काफी आर्थिक अवसंरचना को नुकसान पहुंचा है. हालात चिंता की लकीरें खींच रहे हैं.
दरअसल, पश्चिम बंगाल की धरती उग्रवाद की धरा रही है. हां इतना जरूर है कि शुरुआती उग्र विचार आजादी के लिए पनती थी, लेकिन समय के साथ-साथ इसने अपने स्वरूप को हिंसक रूप दे दिया.
विचारधाराओं के बदलते स्वरूप ने पश्चिम बंगाल की धरती से नक्सल और नक्सली जैसे शब्द को जन्म दिया. वैचारिक मतभेदों के कारण यह संगठन हिंसक रास्ते पर चल पड़ा है. नक्सलवाद शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से हुई थी. भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारु माजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 में सत्ता के खिलाफ एक आंदोलन शुरू किया था. यहां भी सत्ता के खिलाफ वैचारिक मतभेद ही था, जिसने इस आंदोलन को जन्म दिया और आज यह हिंसक दल रूप में पूरी दुनिया में प्रचलित है. ऐसे दर्जनों संगठनों की खुली गतिविधियों पर केंद्र सरकार ने प्रतिबंध लगाया है. भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अनुसार, हिंसक गतिविधियों के कारण बब्बर खालसा इंटरनेशनल, खालिस्तान कमांडो फोर्स, खालिस्तान जिन्दाबाद फोर्स, इंटरनेशनल सिख यूथ फेडरेशन, लश्कर-ए-तैयबा/पास्बां-ए-अहले हदीस, जैश-ए-मोहम्मद/तहरीक-ए-फुरकान, हरकत-उल-मुजाहिद्दीन/हरकत-उल-अंसार/हरकत-उल-जिहाद-ए-इस्लामी, हिज्ब-उल-मुजाहिद्दीन/हिज्ब-उल-मुजाहिद्दीन पीर पंजल रेजीमेंट, अल-उमर-मुजाहिद्दीन, जम्मू एंड कश्मीर इस्लामिक फ्रंट, यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ आसाम (यू उल एफ ए), असम में नेशनल डेमोक्रैटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एन डी एफ बी), पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ( पी एल ए), यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (यू एन एल एफ), पीपुल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ कांगलेपाक (पी आर ई पी ए के), कांगलेपाक कम्यूनिस्ट पार्टी ( के सी पी), कांगलेई याओल काम्बा लुप ( के आई के एल), मणिपुर पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ( एम पी एल एफ), ऑल त्रिपुरा टाइगर फोर्स, नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा, लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम, स्टूडेन्ट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया, दीनदार अंजुमन, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) पीपुल्स वार-इसके सभी घटक और अग्रणी संगठन, माओवादी कम्यूनिस्ट सेन्टर ( एम सी सी) इसके सभी घटक और अग्रणी संगठन, अल बद्र, जमात-उल-मुजाहिद्दीन, अल-कायदा, दुखतारन-ए-मिल्लत ( डी ई एम), तमिलनाडु लिबरेशन आर्मी ( टी एन एल ए), तमिलनाडु नेशनल रिट्राइएबल ट्रुप्स ( टी एन आर टी), अखिल भारतीय नेपाली एकता समाज ( ए बी एन ई एस), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी), इसके सभी गुट और अग्रणी संगठन, इंडियन मुजाहिदीन, इसके सभी गुट और अग्रणी संगठन, गारो नेशनल लिबरेशन आर्मी (जी एन एल ए) के सभी गुट और अग्रणी संगठन आदि प्रतिबंधित हैं.
इसका मतलब साफ है कि आजाद भारत के लोकतंत्र में वैसी विचारों को स्थान नहीं हैं, जो या तो हिंसक हैं या हिंसा को प्रोत्साहित करते हैं. ऐसी स्थिति में लोकतंत्र के महापर्व कहे जाने वाले चुनाव या इसके बाद हिंसा किसी भी हाल में स्वीकार्य नहीं है. हमारा लोकतंत्र कभी हिंसा को स्थान नहीं देता है.
पश्चिम बंगाल में संपन्न चुनाव के बाद जिस तरह से हिंसा की तस्वीरें आ रही हैं, वह किसी के दिल को झंकझोर सकती हैं. इस हिंसा के दौरान संपत्तियों के साथ-साथ जन की भी हानि हुई है. अब सवाल उठता है कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है? क्या संबंधित राजनीतिक दल को संवैधानिक हिंसा की अनुमति प्राप्त है? क्या तथाकथित हिंसक दल के बायलो में हिंसा शब्द का प्रयोग किया गया है? क्या तथाकथित हिंसक दल का नेतृत्व हिंसक गतिविधियों की नैतिक जिम्मेदारी लेंगा? यदि इनमें से किसी एक सवाल हा जवाब यदि हां में है तो फिर यह दल प्रतिबंधित उग्रवादी दलों की सूची से अलग कैसे रह सकता है और यदि नहीं तो भी राजनीतिक हिंसा को हमारा लोकतंत्र अनुमति नहीं देता, क्योंकि देश में प्रतिबंधित सभी उग्रवादी संगठन का उद्भय भी वैचारिक मतभेदों के खिलाफ आंदोलन से ही हुआ था और उनके हिंसक आंदोलनों ने उन्हें प्रतिबंधित दलों की सूची में शामिल किया.
भारत सरकार के गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, साल 2004 में 466, 2005 में 524, 2006 में 521, 2007 में 460, 2008 में 490, 2009 में 591, 2010 में 720, 2011 में 469, 2012 में 301, 2013 में 282, 2014 में 222, 2015 में 171, 2016 में 213, 2017 में 188, 2018 में 173, 2019 में 150 तथा 2020 में 140 लोगों की मौत उग्रवादी संगठनों की हिंसक घटनाओं में हुई है.
इसी तरह से साल 2010 में 365, 2011 में 293, 2012 में 214, 2013 में 169, 2014 में 100, 2015 में 127, 2016 में 79, 2017 में 75, 2018 में 60, 2019 में 64 तथा 2020 में 47 आर्थिक अवसंरचना पर हमलों की घटनाएं हुईं हैं.
ऐसी स्थिति में पश्चिम बंगाल में चुनाव पूर्व या चुनाव पश्चात हिंसक की घटनाएं किसी भी मायने में लोकतंत्र में स्वीकार्य नहीं है और ना ही आपमें और उग्रवादियों में कोई अंतर है, क्योंकि पश्चिम बंगाल की धरती पर आम आदमी का रक्त टपक रहा है और आर्थिक अवसंरचनाओं को नुकसान पहुंच रहा है. यह सिर्फ पश्चिम बंगाल ही नहीं, अपितु उन सभी जगहों पर भी लागू होती है, जहां लोकतंत्र हित के लिए बने दल हिंसा के रास्ते पर उतर जाते हैं.