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किसान आंदोलन – इतना अड़ियलपन क्यों?

विनय श्रीवास्तव (स्वतंत्र पत्रकार)

अन्नदाताओं के आंदोलन का आज अठारहवां दिन है। और यह आंदोलन अभी भी जारी है। किसान आंदोलन अब पूर्ण रूप से राजनीतिक रूप ले चुका है। किसानों के फसल की कटान सियासी पार्टियां करने की कोशिश कर रही हैं। नए कृषि कानूनों के खिलाफ पिछले अठारह दिनों से आंदोलन कर रहे किसानों को केंद्र सरकार ने दस पॉइंट का प्रस्ताव भेजा था, लेकिन किसानों ने यह प्रस्ताव भी ठुकरा दिया। दिल्ली के दरवाजे पर आंदोलन कर रहे किसानों को सरकार ने छह दौर की बातचीत के बाद दस पॉइंट का प्रस्ताव भेज था। इस प्रस्ताव में सरकार मिनिमम सपोर्ट प्राइस यानी एमएसपी की मौजूदा व्यवस्था जारी रखने पर लिखित में भरोसा देने पर राजी हो गई। सरकार ने यह भी कहा कि वह एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी यानी एपीएमसी के तहत बनी मंडियों को बचाने के लिए कानून में भी बदलाव करेगी। हालांकि, कृषि कानूनों को खत्म करने की किसानों की सबसे पहली मांग सरकार ने ठुकरा दी। अब किसान आंदोलन के बहाने देश की अखंडता को तोड़ने की साजिश रची जा रही है। आंदोलन उग्र रूप ले रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए। कड़ाके की इस ठंड में बुजुर्ग किसान भी इस आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। कोरोन काल में यह आंदोलन अत्यधिक खतरनाक है, लेकिन हमारे अन्नदाता भी विवश हैं। सरकार किसानों को अपनी बात और कृषि कानून को समझाने की कोशिश कर रही है, लेकिन अभी भी विफल ही नज़र आ रही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कृषि मंत्री नरेंद्र सिहं तोमर किसानों को यह आश्वासन दे रहे हैं कि एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) भी रहेगा और कृषि मंडियां भी रहेंगी। अब किसान देश में कहीं पर भी मंडी के बाहर भी अपनी फसल किसी भी कीमत पर बेचने को स्वतंत्र है। मोदी सरकार साल 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने की अपनी संकल्प दोहरा रही है, जबकि किसानों को इसपर संदेह है। किसानों को लग रहा है की सरकार उनकी मंडियों को छीनकर कॉरपोरेट कंपनियों को देना चाहती है।
किसान नेताओं में सरकार के इस बिल के खिलाफ काफी गुस्सा है। उनका कहना है कि ये बिल उन अन्नदाताओं की परेशानी बढ़ाएंगे, जिन्होंने अर्थव्यवस्था को संभाले रखा है। कांट्रैक्ट फार्मिंग में कोई भी विवाद होने पर उसका फैसला सुलह बोर्ड में होगा, जिसका सबसे पावरफुल अधिकारी एसडीएम को बनाया गया है। इसकी अपील सिर्फ डीएम यानी कलेक्टर के यहां होगी।
वास्तव में यह एक ऐसा क़ानून है, जिसके तहत किसानों और व्यापारियों को एपीएमसी (कृषि उपज विपणन समितियों) की मंडी से बाहर फ़सल बेचने की आज़ादी होगी। इसे लेकर सरकार कह रही है कि मंडियां बंद नहीं हो रही हैं। सिर्फ किसानों के लिए ऐसी व्यवस्था दी जा रही है, जिसके तहत वह किसी भी खरीदार को अच्छे दाम पर अपनी फसल बेच सकता है। कोई बिचौलिया नहीं होगा। किसान स्वयं अपनी उपज की कीमत तय कर सकेंगे। वह जहां चाहेंगे अपनी उपज को बेच सकेंगे, जिसकी मदद से किसान के अधिकारों में इजाफा होगा और बाजार में प्रतियोगिता बढ़ेगी। किसान को उसकी फसल की गुणवत्ता के अनुसार मूल्य निर्धारण की स्वतंत्रता मिलेगी। किसान का डर और सरकार की नीयत दोनों अपनी जगह पर सही है। सरकार को चाहिए कि किसानों के मन में बैठे डर को बातचीत के जरिए शीघ्र समाप्त करे। समाधान के लिए किसी बिंदु पर सरकार को अपने कानून में बदलाव करना पड़े तो वह भी करना चाहिए। क्योंकि अन्नदाताओं के आंदोलन की आड़ में कुछ खुराफाती तत्व देश में अशान्ति फैलाने की फिराक में हैं। जिनकी राजनीति डूबी हुई है, वे अपनी राजनीतिक नैय्या पार लगाने की कोशिश में हैं और किसानों के कंधों पर बंदूक रख कर निशाना साध रहे हैं। सरकार और किसानों को अपने अंदर की किसी भी हठ या अहंकार को छोड़कर देशहित में शीघ्र फैसला लेना चाहिए और आंदोलन को शीघ्र समाप्त करना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शनिवार को भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) की 93वीं वार्षिक बैठक में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए जुड़े। मोदी ने कहा कि किसानों को जितना सपोर्ट मिलेगा, उतना किसान और देश मजबूत होगा। सरकार नीयत और नीति से किसानों का हित चाहती है। किसानों को समय की नज़ाकत को भी समझना होगा, क्योंकि किसान आंदोलन के बहाने राजनीतिक पार्टियां अपनी रोटी सेंक रही हैं। वहीं देश विरोधी ताकतें देश की अखंडता को तोड़ने तथा देश में अशांति फैलाने की पुरजोर कोशिश कर रही है।

 

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