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शिक्षा सिर्फ धन उपार्जन और नौकरी पाने तक सीमित ना हो

विनय श्रीवास्तव (स्वतंत्र पत्रकार)
विनय श्रीवास्तव (स्वतंत्र पत्रकार), जयपुर
बदलते समय के साथ शिक्षा की परिभाषा एवं शिक्षा का स्तर भी दिन प्रतिदिन परिवर्तित हो रहा है। आज की शिक्षा सिर्फ नौकरी और धन कमाऊ की तरफ अग्रसित हो रही है। प्राचीन शिक्षा पद्धति और आधुनिक शिक्षा पद्धति में अंतर को बखूबी देखा भी जा सकता है और महसूस भी किया जा सकता है।
प्राचीन समय में शिक्षा का केंद्र गुरुकुल या आश्रम स्थल होते थे। वहां विद्यार्थियों को ना सिर्फ पाठ्य पुस्तक की शिक्षा प्राप्त होती थी अपितु नैतिक शिक्षा और अध्यात्म का भी ज्ञान दिया जाता था। इसीलिए वहाँ के समाज की सर्वविध समृद्धि आज से कहीं अधिक उन्नत दिखाई देती है। वास्तव में शिक्षा वह पद्धति है जो मनुष्य के जीवन में सभ्यता, नैतिकता, धर्मात्मता और जितेन्द्रियतादि का संचार करता है। अपने दैनिक जीवन में हम जो भी कार्य करते हैं उसमें भी अर्जित शिक्षा की झलक होती है। प्राचीन शिक्षा प्रणाली से एक असाधारण समाज का निर्माण होता था। एक ऐसा समाज जहां लोगों में एक दूसरे के प्रति आदर, प्रेम और अपनापन विद्धमान रहता था। जहां लोग एक दूसरे के सुख दुःख में भागीदार रहते थे। एक दूसरे के लिए त्याग और समर्पण की भावना होती थी। उस समाज में धर्मात्मा, श्रद्धालु, निर्लोभी, सत्यवादी लोगों की संख्या अधिकतर होती थी। क्रूरता की भावना नगण्य होती थी। आधुनिक शिक्षा प्रणाली में उपरोक्त बातें लुप्त होती जा रही है।  वर्तमानयुगीन शिक्षा के उद्देश्य तो केवल ऐसी शिक्षा को देना है जिससे अधिक से अधिक आय का आगम हो और उसी के लिए बौद्धिक विकास की परिकल्पना है। उस विकास के साधन उचित हैं अथवा अनुचित यह सोचना आज की शिक्षापद्धति के एजेण्डे में नहीं है। एक से एक छात्र प्रशासक, डॉक्टर या इंजीनियर आदि कुछ भी किन्हीं भी तरीकों से बने, परन्तु बने अवश्य। यही आज के शिक्षाविद् और राजनेता चाहते हैं। अपने आस पास और देश दुनिया में हो रहे घटनाओं को देखकर यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली बच्चों में आध्यात्मिक,व्यवहारिक और नैतिक ज्ञान देने में असफल हो रही है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली में सांस्कृतिक शिक्षा को जोड़ना अत्याधिक आवश्यक और की बेहद महत्वपूर्ण है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली बेहतर हो इस पर चिंतन करना आवश्यक है। शिक्षा ऐसी हो जहां बच्चों को सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं बल्कि उन्हें अध्यात्ममिक और नैतिक शिक्षा का ज्ञान भी अर्जित हो। ऐसी शिक्षा व्यवस्था जहां बच्चों में शारीरिक, मानसिक और आत्मिक बल भी बढ़ाया जा सके। जब बच्चों को शुरू से ही ऐसी शिक्षा दी जाएगी तभी पुनः ऐसे समाज का निर्माण हो पायेगा जहां बच्चे अपने से बड़ों का आदर सम्मान करेंगे, दूसरे के दुःख में उनका सहभागी बनेंगे, दयालु बनेंगे और संवेदनशील भी। यदि ऐसा होगा तभी हत्या, बलात्कार, यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा जैसे जघन्य अपराधों पर रोक लगेगी। देश के प्रति वास्तविक प्रेम की भावना पैदा होगी। गरीब, निर्धन और असहाय लोगों के प्रति दयालुता की भावना जागृत होगी। 
देश में बढ़ रही धार्मिक उन्माद और कट्टरता चिंता की बात है। शिक्षाविदों से लेकर राजनेताओं और माता पिता को इस पर गहरी चिंतन करनी चाहिए। शिक्षा सिर्फ धन उपार्जन और नौकरी तक सीमित ना रह जाये। बच्चों को सांस्कृतिक और आध्यात्मिक कार्यक्रमों के माध्यम से जोड़कर उन्हें सही मार्गदर्शन और ज्ञान दिया जाए यही समय की मांग है

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