( निलेश शुक्ल)
गुजरात ,के विख्यात रामकथावाचक मोरारी बापू को लेकर बीते कुछ वर्षों से एक अजीब तरह की द्वैध स्थिति बनती गई है। एक ओर वह लाखों लोगों के लिए श्रद्धा के केंद्र बने हुए हैं, तो दूसरी ओर उनके वक्तव्यों, कथाओं और सामाजिक आचरण को लेकर सनातनी समाज, शंकराचार्यों और हिन्दू धर्म की परंपरागत धारा से तीखी आलोचनाएँ भी उठती रही हैं।
हाल ही में जब उनकी पत्नी के निधन के मात्र तीन दिन बाद ही उन्होंने वाराणसी (काशी) में रामकथा का आयोजन प्रारंभ कर दिया, तो इस निर्णय ने एक बार फिर लोगों को चौंका दिया। यह घटना सोशल मीडिया और धार्मिक हलकों में व्यापक बहस का विषय बनी। सवाल उठे कि क्या शोक की अवधि और पारंपरिक मर्यादा के उल्लंघन की यह स्थिति एक संत को शोभा देती है? शंकराचार्यों और सनातन धर्म के कई विद्वानों ने इसे ‘धार्मिक मर्यादा का हनन’ बताया।
क्या संत समाज अब लोकाचार से ऊपर है?
भारत की सनातन परंपरा में संत को न केवल ज्ञान का वाहक माना जाता है, बल्कि आचरण में मर्यादा, वाणी में संयम और व्यवहार में संतुलन की अपेक्षा की जाती है। लेकिन मोरारी बापू के अनेक कथनों में इन मर्यादाओं का ह्रास होता दिखाई देता है। चाहे वह द्वारका में भगवान कृष्ण के प्रति की गई टिप्पणी हो, जिसके बाद उन्हें क्षमायाचना करनी पड़ी, या फिर उनकी रामकथाओं में की जाने वाली शेर-ओ-शायरी और फिल्मी संवादों की भरमार—इन सभी ने उनकी छवि को ‘सनातन परंपरा के सजग रक्षक’ से हटाकर ‘लोकप्रिय प्रवचनकर्ता’ की ओर मोड़ दिया है।
कई शुद्ध सनातनी अनुयायियों का मानना है कि बापू की कथाएँ अब धार्मिक शिक्षाओं से अधिक मनोरंजन बनती जा रही हैं। शास्त्रीय प्रसंगों की जगह अब कव्वालियों, ग़ज़लों, मुशायरों और उर्दू शेरो की भरमार है, जो कथा के मूल उद्देश्य को क्षीण करती है। क्या रामकथा अब ‘भावनात्मक थियेटर’ बन गई है?
मुस्लिम समुदाय के प्रति विशेष संवेदनशीलता?
एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि क्या मोरारी बापू की आलोचनात्मक दृष्टि केवल हिन्दू समाज तक ही सीमित है? क्या उन्होंने कभी इस्लाम या ईसाइयत की किसी रूढ़ि पर सार्वजनिक टिप्पणी की है? रामचरितमानस और सनातन मूल्यों की आलोचना करने वाले लोगों के विरुद्ध वे कभी खुलकर क्यों नहीं बोलते?
कुछ लोगों का आरोप है कि वे इस्लामिक कट्टरता या मुस्लिम समाज की कुरीतियों के विरुद्ध बोलने का साहस नहीं रखते, क्योंकि इससे उनके तथाकथित ‘सेक्युलर संत’ की छवि पर असर पड़ सकता है। सवाल यह भी उठता है कि क्या बापू का यह ‘संतुलन’ केवल लोकप्रियता बचाने का प्रयास है, या फिर धार्मिक सत्य के प्रति एक किस्म की चुप्पी?
आस्था बनाम अंधश्रद्धा
मोरारी बापू के लाखों अनुयायी हैं, जिनमें देश-विदेश के प्रभावशाली लोग भी शामिल हैं। कथा के मंचों पर राजनीतिक नेता, फिल्मी सितारे, उद्योगपति और विदेशी नागरिकों की उपस्थिति आम बात है। यह प्रभावशाली नेटवर्क बापू की आलोचना को दबा भी देता है। कुछ लोग इसे ‘ब्रांड मोरारी बापू’ का नाम देते हैं—एक ऐसा संत जो धर्म, संस्कृति और बाज़ार के त्रिकोण में सफल ब्रांडिंग कर सका।
पर यह भी सच है कि लोकप्रियता का अर्थ सच्चाई नहीं होता। एक समय आसाराम बापू और राम रहीम भी अपार अनुयायी संख्या के मालिक थे। आज वे कहाँ हैं, यह सब जानते हैं। इसलिए यह तर्क कि ‘अनुयायी अधिक हैं तो व्यक्ति महान है’—खुद में ही त्रुटिपूर्ण है।
शंकराचार्य और सनातनी संतों की आलोचना क्यों ज़रूरी है?
जब शंकराचार्यों ने मोरारी बापू की काशी कथा और कथित अनुशासनहीन आचरण की आलोचना की, तो कुछ बापू-समर्थकों ने उन्हें ‘पुरानी सोच’ वाला कहकर नकार दिया। यह विचारधारा ही आज सनातन धर्म के लिए सबसे बड़ा खतरा है। सनातन धर्म परंपरा और परिवर्तन का सुंदर संतुलन है, लेकिन वह परिवर्तन मर्यादा तोड़कर नहीं, मर्यादा के भीतर रहकर होना चाहिए। यदि शंकराचार्य जैसी संस्था भी आज अप्रासंगिक मानी जाने लगे, तो यह धर्म के भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है।
विवादों की श्रृंखला – एक झलक
- द्वारका प्रसंग:भगवान कृष्ण को लेकर की गई ‘अमर्यादित’ टिप्पणी। बाद में क्षमा मांगी गई।
- शेर-शायरी और फिल्मी संवादों का उपयोग:रामकथा मंच पर ‘शुद्धता’ और ‘शास्त्रीयता’ पर चोट।
- विपरीत मत रखने वाले सनातनी संतों की आलोचना:सनातन मंचों से दूरी।
- पत्नी के निधन के बाद कथा:सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं की अनदेखी।
- राजनीतिक नज़दीकियाँ:राजनीतिक चेहरों के साथ बढ़ती मंचीय भागीदारी।
क्या हम संतों से अधिक जवाबदेही की अपेक्षा करें?
जब एक संत स्वयं को “लोक-संत” घोषित करता है, तो उससे केवल धार्मिक शिक्षा ही नहीं, सामाजिक उत्तरदायित्व की भी अपेक्षा होती है। यदि कोई संत लोक में है, समाज के समर्थन से खड़ा है, तो उसे आलोचना भी स्वीकारनी होगी। और यदि कोई संत आलोचना से परे होना चाहता है, तो फिर उसे एकान्त में रहना चाहिए
धर्म की गरिमा सर्वोपरि है
रामकथा केवल मंचीय प्रस्तुति नहीं, वह आत्मशुद्धि का मार्ग है। संत केवल कथावाचक नहीं, समाज के नैतिक पथप्रदर्शक होते हैं। मोरारी बापू जैसे विद्वान, अनुभवी और प्रतिभाशाली वक्ता से समाज को बहुत अपेक्षाएं होती हैं। लेकिन जब वह सीमाएं लांघते हैं, तो शंका और विवाद उठना स्वाभाविक है।
मूल प्रश्न यह नहीं कि मोरारी बापू कथा करें या न करें, वह कौन से शेर पढ़ें या किस धर्म की चर्चा करें। असली प्रश्न यह है—क्या वह स्वयं को सनातन मर्यादा का वाहक मानते हैं या केवल एक लोकप्रिय प्रवचनकर्ता जो ‘सबको खुश रखने’ की नीति पर चल रहा है?
जब तक इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट नहीं होता, तब तक मोरारी बापू की कथाओं से उठने वाले विवाद भी थमने वाले नहीं हैं।