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भारत में आजादी के 77 साल बाद भी अदालत में गूंजते हैं वही औपनिवेशिक शब्द

  • अब भी अदालतों में गूंजता है ‘मिलॉर्ड’ और ‘लॉर्ड साहब’

  • क्या यह न्यायपालिका में घमंड को बढ़ावा देता है?

विशेष रिपोर्ट, इण्ठो एशिया टाइम्स
भारत आज एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक देश है। फिर भी हमारे न्यायालयों में आज भी अंग्रेजी राज की ऐसी परंपराएं ज़िंदा हैं, जो कहीं न कहीं हमारे संविधान और समानता के सिद्धांत पर सवाल खड़े करती हैं।
‘मिलॉर्ड’, ‘माय लॉर्ड’, और ‘लॉर्ड साहब’ जैसे शब्द, जो कभी ब्रिटिश हुकूमत के दौर में न्यायाधीशों को सम्मान देने के लिए कहे जाते थे, आज भी अदालतों में धड़ल्ले से बोले जा रहे हैं — जबकि सुप्रीम कोर्ट खुद कह चुका है कि इनका उपयोग अनिवार्य नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा था?

विशेषज्ञों के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में साफ कहा था कि जजों को ‘माय लॉर्ड’ या ‘योर लॉर्डशिप’ कहने की कोई ज़रूरत नहीं है। आप उन्हें ‘सर’, ‘मैडम’ या ‘योर ऑनर’ कह सकते हैं।

यह व्यवस्था इस सोच पर आधारित थी कि सम्मान दिखाने के लिए झुकाव या दासता भरी भाषा की ज़रूरत नहीं होती। मगर वास्तविकता यह है कि आज भी वकील, खासकर जूनियर अधिवक्ता, इन शब्दों का उपयोग ‘परंपरा’, ‘संस्कार’ या कभी-कभी जज की कृपा पाने की उम्मीद में करते हैं।

माय लॉर्ड’ की जड़ें कहां से आईं?

बताया जाता है कि जब भारत में अंग्रेजों का शासन था, तब उनके न्यायाधीशों को इंग्लैंड की तर्ज पर ‘माय लॉर्ड’ कहा जाता था। ये शब्द इंग्लैंड में राजशाही और ऊँची जातियों को संबोधित करने के लिए प्रयोग होते थे।

भारत को आज़ादी मिले 77 साल हो गए, मगर हमारी अदालतें अब भी उन्हीं औपनिवेशिक पदचिह्नों पर चल रही हैं। यह न सिर्फ भाषा की बात है, बल्कि मानसिकता का भी सवाल है।

समस्या कहां है?

‘माय लॉर्ड’ जैसे शब्द सुनने में सम्मानजनक लग सकते हैं, लेकिन यह एकतरफा सम्मान है — जहाँ एक व्यक्ति खुद को पूरी तरह झुका देता है और सामने वाला खुद को सर्वोपरि समझने लगता है।

इससे दो बड़ी समस्याएं खड़ी होती हैं:

1. जज खुद को समाज से ऊपर समझने लगते हैं।
अदालत में ‘मिलॉर्ड’ जैसे भारी शब्दों से बार-बार संबोधित किया जाना, कई बार न्यायाधीशों में एक अहंकार (घमंड) पैदा कर सकता है। इसका असर उनके व्यवहार, फैसलों और वकीलों से बातचीत के ढंग में दिखता है।

2. समानता का सिद्धांत टूटता है।
जब एक आम वकील या आम आदमी न्याय की बात करने एक ऐसे व्यक्ति के सामने जाए जिसे वह ‘लॉर्ड’ कहे, तो न्याय पाने की प्रक्रिया खुद ही डर और दबाव से शुरू होती है। यह लोकतंत्र के लिए सही संकेत नहीं।

 क्या यह सिर्फ शब्दों की बात है?

नहीं। यह केवल भाषा की बात नहीं है, बल्कि यह दर्शाता है कि हम आज भी न्याय व्यवस्था को ‘सर्वोच्च शक्ति’ की तरह देखते हैं, न कि ‘सेवा देने वाली संस्था’ की तरह।

भारत का संविधान कहता है कि हम सभी नागरिक समान हैं — चाहे वह जज हो या झाड़ू लगाने वाला।

फिर जज को ‘लॉर्ड’ कहने और आम आदमी को खड़े होने की भी इजाजत न देने वाला व्यवहार क्या इस सोच से मेल खाता है?

अब क्या किया जाना चाहिए?

1. सरल और सम्मानजनक भाषा अपनाएं
‘सर’, ‘मैडम’, ‘योर ऑनर’, ‘माननीय न्यायाधीश’ जैसे शब्द भी पर्याप्त हैं।
यह सम्मान भी दिखाते हैं और आत्मसम्मान भी बनाए रखते हैं।

2. कानून मंत्रालय और न्यायपालिका को दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए
जिसमें यह साफ किया जाए कि ‘माय लॉर्ड’ कहना केवल परंपरा नहीं, अब अनुपयुक्त है।

3. वकीलों को जागरूक किया जाए
युवा अधिवक्ताओं को प्रशिक्षण में यह बताया जाए कि न्यायाधीश को कैसे संबोधित करें, ताकि वे बिना डर और दबाव के तर्क कर सकें, क्योंकि भारत में अगर न्याय को सचमुच आम लोगों तक पहुंचाना है, तो हमें सबसे पहले उस भाषा और रवैये को बदलना होगा, जो डर और दूरी पैदा करता है।
‘मिलॉर्ड’ जैसे शब्द न तो लोकतांत्रिक हैं, न ही न्यायसंगत।
सम्मान के नाम पर पैदा किया गया डर, न्याय का दुश्मन बन जाता है।
अब समय है कि हम इस औपनिवेशिक बोझ को उतारें और अदालतों को जनता के और करीब लाएं।

रिपोर्ट: Indo Asian Times

लेखक: हेमंत कुमार तिवारी

 

 

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