नम्रता चढा, भुवनेश्वर
वोट हासिल करने के लिए मुफ्तखोरी की हद तो तब सामने आई जब तेलंगाना में सत्तादल टीआरएस के नेता राजनाला श्रीहरि का शराब की शीशी और फड़फड़ाता मुर्गा बांटते हुए वीडियो वॉयरल हुआ। लोगों ने दांतों तले उंगलियां दबा लीं। चुनाव से पहले वोटरों को मुफ्त उपहार के नाम पर टीवी, फ्रिज, कपड़े, पैसे, शराब, मीट मुर्गा यानी कुछ भी बांटिए उन्हें सब स्वीकार। फिर भी वोट की गारंटी नहीं। कहते हैं कि वोटर समझदार हो चुका है। कच्ची दारू कच्चा वोट, पक्की दारू पक्का वोट। बस्तियों में यह नारा भी चुनावी मौके पर जब तब मसखरे स्वभाव के लोग लगाते रहते हैं। चुनाव के दौरान शराब, नकदी की खूब पकड़-धक़ड़ होती है। पर यह बंद नहीं हो पाया। पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका को संज्ञान में लेते हुए, इस पर रोक लगाने के लिए चुनाव आयोग से कहा था कि राजनीतिक दल जो मुफ्त रेवड़ियां बांटते फिरते हैं, इन पर रोक लगाइए। झूठे सच्चे वादों की जांच कीजिए और तय कीजिए कि जो वादे किए जाते हैं उनका राज्यों के खजाने पर क्या इम्पैक्ट पड़ता है। ऐसे वादे प्रेक्टिकल होते भी हैं कि नहीं। एक महीने बाद चुनाव आयोग की तंद्रा टूटी। सभी पार्टियों को पत्र लिखकर भेजा गया जिसमें कहा गया कि वे (दल) जो मुफ्त रेवड़ी बांटते हैं, अब उसका हिसाब जनता को देना होगा। दलों को अपने इलेक्शन मैनीफेस्टो में वादों का वित्तीय प्रभाव बताना होगा। इसे हालांकि रस्मअदायगी के तौर पर देखा जा रहा है लेकिन आयोग में जुम्बिश तो हुई।
हालांकि चुनाव में वादे हैं वादों का क्या, कहावत चरितार्थ होती है। और ये जीत की गारंटी भी नहीं देते। पिछले राज्यों में हुए चुनाव में मोबाइल, स्कूटी, लैपटॉप आदि के वादे का क्या असर मतदाताओं पर रहा सब जानते हैं। अब चुनाव आयोग के ऐसे पत्रों का क्या असर पड़ता है, लोग जान गए हैं। सुप्रीमकोर्ट का आदेश की अवहेलना भी नहीं हुई और चुनाव आयोग ने भी अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली।
आपको याद दिला दें कि चुनाव आयोग ने शपथपत्र दाखिल करते हुए सुप्रीमकोर्ट से कहा था कि यह दलों की नीतिगत फैसला होता है जिस पर मतदाता स्वयं तय करें कि उन्हें क्या करना है। वह (चुनाव आयोग) राजकीय नीतियों व फैसलों का नियमन नहीं कर सकता, जो विजेता पार्टी द्वारा उस वक्त लिये जा सकते हैं जब वे सरकार गठित करेंगे। इस तरह की कार्रवाई, कानून में प्रावधान उपलब्ध किये बगैर, शक्तियों के दायरे से बाहर होंगे। आयोग ने कहा था कि चुनाव से पहले या बाद में चुनावी तोहफे देने की पहल या उसका वितरण पार्टी का एक नीतिगत फैसला है और क्या इस तरह की नीतियां वित्तीय रूप से व्यवहार्य हैं या राज्य की आर्थिक स्थिति पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, एक ऐसा सवाल है जिस पर राज्य के मतदाताओं को विचार करना होगा और निर्णय लेना होगा। दिसंबर 2016 में चुनाव सुधारों पर 47 प्रस्तावों का एक सेट केंद्र को भेजा गया था जो राजनीतिक दलों से जुड़े सुधारों के बारे में था। इनमें से एक अध्याय में राजनीतिक दलों के पंजीकरण समाप्त करने की बात कही गई थी। चुनाव आयोग शपथ पत्र में यह भी कहा कि निर्वाचन आयोग ने कानून मंत्रालय को भी यह सिफारिश की थी कि उसे किसी राजनीतिक दल का पंजीकरण समाप्त करने और पंजीकरण के नियम तथा राजनीतिक दलों के पंजीकरण समाप्त करने के लिए आवश्यक आदेश जारी करने की शक्तियों का इस्तेमाल करने में सक्षम बनाया जाए।
रेव़ड़ी कल्चर को चुनाव आचार संहिता में शामिल किया जाना चाहिए (सुप्रीमकोर्ट में आयोग के वकील कहना है कि ऐसा हुआ है)। यदि आयोग ने ऐसा किया है तो उसे दलों का पंजीयन निरस्त करने का अधिकार भी मिलना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे के उद्घाटन के मौके पर कहा था कि ‘मुफ्त की रेवड़ी बांटकर वोट बटोरने का कल्चर’ लाने की कोशिश हो रही है जो कि देश के लिए बहुत ही घातक है। यह भाषण यूट्यूब चैनल पर भी सुना जा सकता है। इसी बात पर तिलमिलाए अरविंद केजरीवाल ने पूछ लिया था कि दिल्ली के बच्चों को मुफ्त शिक्षा या दिल्ली की जनता को मुफ्त बिजली देना क्या ‘मुफ्त की रेवड़ी’ बांटना है? यह भी यूट्यूब पर है। इस पर नियंत्रण को चुनाव आयोग ने कानूनी ताकत मांगी जिस पर अभी व्यवस्था देना बाकी है। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जनता के पैसे का इस्तेमाल मतदाताओं को लुभाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। चुनाव आयोग रेवड़ी कल्चर समाप्त करने के तरीके तलाशने होंगे।
एक तथ्य यह भी है कि इसकी शुरुआत कहां से हुई थी। तो आपको बता दें कि 1990 के दशक में एआईडीएमके की जयललिता ने वादा किया कि तमिलनाडु में मुफ्त साड़ी, प्रेशर कुकर, टीवी, और वाशिंग मशीन वितरित की जाएगी। उसी दौरान पंजाब में अकाली दल ने मुफ्त बिजली देने का ऐलान किया। जनता दल का शासन केंद्र में आने के बाद चुनावी तोहफा कल्चर शुरू होने की बात सामने आती है। इसके बाद क्षेत्रीय दल पनपते रहे। चाहे समता पार्टी हो या जनता दल (यू), यूपी में मुलायम की पार्टी समाजवादी पार्टी, ओडिशा में बीजू जनता दल तो कर्नाटक में जनता दल (एस), हरियाणा में इनेलो और 1996 में अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोकदल। सत्ता प्राप्त करने का चुनावी तोहफा आसान शार्टकट तरीका है। आरबीआई ने भी बजटीय रिपोर्ट में राज्यों की स्थिति पर चिंता व्यक्त की है। उत्तर प्रदेश में जीएएसडीपी का 34.9 प्रतिशत कर्ज है। सबसे ज्यादा पंजाब में जीएसडीपी का 53.3 प्रतिशत कर्ज है। चुनावी तोहफों की प्रथा समाप्त करने को चुनाव आयोग को अपने दिशा निर्देशों को लागू करने के लिए और अधिक शक्तियों की आवश्यकता है। शायद यही है कि इस आशय के प्रस्ताव अलमारी बंद है। यह मुफ्तखोरी देश में आर्थिक संकट का प्रमुख कारण है।
लेखिका एक वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता और आलोचक हैं।