-
बेरोजगारी दर हरियाणा-राजस्थान और झारखंड से बेहतर
-
राज्य सरकार उतना ही कर्ज ले सकती जितना केंद्र की अनुमति
-
आने वाले वर्ष में ब्याज दरें बढ़ने की उम्मीद
पटना, बिहार सरकार ने बीते 28 फरवरी को 2022-23 का बजट पेश किया जो 2.37 लाख करोड़ के आकार का है। वित्त वर्ष 2021-22 की तुलना में यह करीब 19 हजार करोड़ अधिक का बजट है। हालांकि, बजट के आकार में वृद्धि के साथ राज्य सरकार के ऊपर कर्ज की देनदारी भी साल दर साल बढ़कर 2.37 लाख करोड़ हो गई है। इनके सबके बीच कोरोना काल में बिहार के लिए अच्छी बात यह रही कि बेरोजगारी दर हरियाणा-राजस्थान और पड़ोसी झारखंड के मुकाबले बेहतर रही।
राज्य सरकार द्वारा बजट में की गई घोषणाओं और इससे जुड़ी बारीकियों पर अर्थशास्त्री सुधांशु कुमार ने बुधवार को हिन्दुस्थान समाचार से बातचीत में बताया कि सरकार के पास विकास के लिए जरूरी खर्चों के लिए संसाधनों की सीमा है, जिसके कारण खर्च का एक हिस्सा कर्ज से जुटाए संसाधनों से भी होता है। हालांकि, कर्ज लेने में अब एक सीमा है तथा राज्य सरकारें उतना ही उधार ले सकती है जितना केंद्र उन्हें लेने की अनुमति देता है। बजट राज्य के विकास के लिए सात निश्चय की अवधारणा के आधार पर खर्च करने की योजना प्रस्तुत करता है। हालांकि संसाधनों की सीमा और विकास के पायदान में और तेजी से बढ़ने की जरूरत के कारण अपेक्षाएं अधिक रहती हैं।
राजधानी पटना स्थित सेंटर फॉर इकोनॉमिक पॉलिसी एंड पब्लिक फाइनेंस (सीईपीपीएफ) के अर्थशास्त्री और एसोसिएट प्रोफेसर सुधांशु कुमार ने बताया कि राज्य ने सीमित संसाधनों के बावजूद अच्छी विकास दर को प्राप्त किया है। जहां तक राज्य सरकारों के कर्ज की बात है तो देश में हालिया रुझान बताता है कि राज्य सरकारें लगभग उतनी ही उधार ले रही हैं जितनी केंद्र सरकार उन्हें उधार लेने की अनुमति देती है। हालांकि, उधार ली गई राशि की सीमा सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के हिस्से के तौर पर निर्धारित होती है। इसलिए विकसित राज्य जिनकी अर्थव्यवस्था का आकार बड़ा है, कम विकसित राज्यों की तुलना में अधिक उधार ले सकते हैं।
सुधांशु कुमार ने बताया कि बकाया कर्ज बढ़ने के कारण ब्याज भुगतान की देनदारी बढ़ जाती है। बजट लेखांकन में, ब्याज देयता राजस्व व्यय का हिस्सा है। चूंकि आने वाले वर्ष में ब्याज दरें बढ़ने की उम्मीद है, ब्याज भुगतान देनदारियां बढ़ सकती हैं। इसका तत्काल प्रभाव यह होगा कि इससे सार्वजनिक सेवाओं के लिए वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता कम हो जाती है। गौर करें तो वर्तमान में घाटे का स्तर और फिर कर्ज अपरिहार्य है, और इसलिए चुनौती यह है कि राज्य की राजकोषीय क्षमता का विस्तार किया जाए जिससे की राजकोषीय खर्च बढ़ने में सहयोग मिले।
सीमित संसाधनों के कारण सभी राज्य के विकास के लिए सरकार के खर्च का समुचित प्रबंधन महत्वपूर्ण हो जाता है। बिहार आर्थिक विकास के ऐसे दौर से गुजर रहा है जहां लगभग सभी क्षेत्रों को सामान्य से अधिक सरकारी खर्च से सहयोग की जरूरत है। ऐसा राज्य में निजी क्षेत्रों की सीमित उपस्थिति के कारण भी है।
सीएमआईई के आंकड़े के मुताबिक बिहार की ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी दर कम
सुधांशु कुमार ने कहा कि बिहार की बात करे तो राज्य में अधिकतर जनसंख्या गांव में रहती है। राज्य के विकास के लिए गांव का विकास आवश्यक है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के फरवरी महीने के रोजगार के ताजा आंकड़ों, जिसके मुताबिक बिहार के गांवों में बेरोजगारी दर 13.5 फीसदी है, जबकि शहरों में 17.1 फीसदी बेरोजगारी है।
इस बारे में उन्होंने कहा कि इसकी सबसे बड़ी वजह ग्रामीण इलाकों से पलायन के अतिरिक्त प्रभावी तरीके से मनरेगा योजना का लाभ मिलना है। इस क्षेत्र में खेती से बचे अकुशल श्रमिकों को पर्याप्त रोजगार मिल जाता है। शहरी क्षेत्रों में इस तरह की योजना के न होने से बोरोजगारी बढ़ जाती है। सीएमआईई के आंकड़ों के मुताबिक झारखंड, राजस्थान और हरियाणा जैसे औद्योगिक राज्य भी बेरोजगारी घटाने के मामले में बिहार से पीछे है।
बिहार की कुल बेरोजगारी 14 प्रतिशत की तुलना में झारखंड में 15.1 प्रतिशत , राजस्थान में 32.27 प्रतिशत और हरियाणा में 31 प्रतिशत है। शहरी बेरोजगारी भी बिहार के 17.1 प्रतिशत की तुलना में हरियाणा में 22.1 प्रतिशत और झारखंड में 18.7 प्रतिशत है।
साभार-हिस