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पालघर-सातपाटी के ग्रामीणों ने अंतिम संस्कार की प्रथा में किया बदलाव

मुंबई,मृत्यु भोज की प्रथा गरीब परिवार को भीतर से तोड़ देती है। कई बार इसके लिए लिये गये कर्ज का भार दूसरी पीढ़ी भी उठाती है। लेकिन, पालघर जिले के सबसे ज्यादा लोकसंख्या वाले गांव में से एक सातपाटी ग्राम पंचायत के ग्रामीणों ने एक ऐसा साहसिक निर्णय लिया है, जो न केवल अंधविश्वास की बेड़ियों को तोड़ने वाला है, बल्कि भोज के नाम पर कर्ज के बोझ से भी गरीबों को निजात दिलायेगा। गांव के लोगों ने तय किया है कि किसी के निधन पर वे न तो मृत्यु भोज करेंगे और न ही किसी तरह का कर्मकांड में फिजूल खर्ची करेंगे। ग्रामीणों ने एक बैठक में सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि समाज में व्याप्त कुरीतियों को सुधारने की जरूरत है।

इसलिए मृत्यु भोज नहीं किया जाये और न ही आत्मा के उद्धार के लिए कर्मकांड ही कराया जाये। पहले तो गांव के लोग इस बात पर थोड़ा हिचकिचा रहे थे, लेकिन बाद में सब सहमत हो गये। बैठक में यह भी निर्णय लिया गया कि गांव में किसी की भी मृत्यु पर इसी परंपरा को आगे बढ़ाया जाये। हालांकि इस दौरान परिवार के लोग मृतक के घर खाना खा सकेंगे।
सातपाटी में वैती समाजोन्नती संघ, मांगेला समाजोन्नती संघ, मच्छिमार समाजोन्नती संघ, ग्रामपंचायत, श्रीराम मंदिर संस्थान और तंटामुक्ती गाँव कमेटी आदि बदलाव के लिए एक मंच पर आकर इसके लिए ग्रामीणों से आवाहन कर रहे है।

मौत पर अब 12 दिन की बजाय 5 दिन घर बैठेंगे परिवार के सदस्य

सातपाटी ग्रामपंचायत में मांगेला और वैती समाज के लोगों की करीब 25 हजार की आबादी है। औसतन किसी व्यक्ति की मौत पर मृत्युभोज और अन्य कर्मकांडो पर 50 हजार से ज्यादा का खर्च आता है।
और 12 दिनों तक परिवार के सदस्य घरों में ही रहते है। अब इसके लिए 5 दिन तय किये गए है।
लोग मृत्यु भोज के नाम पर अपनी जिंदगी को आर्थिक विपन्नता में धकेल देते हैं। मांगेला समाज सातपाटी के अध्यक्ष राजन मेहेर ने कहा कि कोरोना काल मे मछुवारे आर्थिक संकट में फंसे हुए है। पुरानी प्रथाओं में हो रही फिजूल खर्ची में कटौती कर उन पैसों को बच्चों की शिक्षा और समाज की बेहतरी के लिए खर्च किया जाएगा। उन्होंने कहा कि कई संस्थाएं और बुद्धजीवियों ने एक मंच पर आकर ग्रामीणों से मृत्यु भोज न करने का आवाहन किया है।
साभार-हिस

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