महाभारत में अक्षय पात्र संबंधित एक कथा है। जब पांचों पांडव द्रौपदी के साथ 12 वर्षों के लिए जंगल में रहने चले गए थे, तब उनकी मुलाकात कई तरह के साधु-संतों से होती थी, लेकिन पांचों पांडवों सहित द्रौपदी को यही चिंता रहती थी कि वे 6 प्राणी अकेले भोजन कैसे करें और उन सैकड़ों-हजारों के लिए भोजन कहां से आए?
तब पुरोहित धौम्य उन्हें सूर्य की 108 नामों के साथ आराधना करने के लिए कहते हैं। द्रौपदी इन नामों का बड़ी आस्था के साथ जाप करती हैं। अंत में भगवान सूर्य प्रसन्न होकर द्रौपदी से इस पूजा-अर्चना का आशय पूछते है?
तब द्रौपदी कहती हैं कि हे प्रभु! मैं हजारों लोगों को भोजन कराने में असमर्थ हूं। मैं आपसे अन्न की अपेक्षा रखती हूं। किस युक्ति से हजारों लोगों को खिलाया जाए, ऐसा कोई साधन मांगती हूं।
तब सूर्यदेव एक ताम्बे का पात्र देकर उन्हें कहते हैं- द्रौपदी! तुम्हारी कामना पूर्ण हो। मैं 12 वर्ष तक तुम्हें अन्नदान करूंगा। यह ताम्बे का बर्तन मैं तुम्हें देता हूं। तुम्हारे पास फल, फूल, शाक आदि 4 प्रकार की भोजन सामग्रियां तब तक अक्षय रहेंगी, जब तक कि तुम परोसती रहोगी।’
कथा के अनुसार द्रौपदी हजारों लोगों को परोसकर ही भोजन ग्रहण करती थी, जब तक वह भोजन ग्रहण नहीं करती, पात्र से भोजन समाप्त नहीं होता था।
एक बार दुर्वासा ऋषि ने इसी तांबे के अक्षय पात्र के भोजन से तृप्त होकर पाण्डवों को युद्ध में विजयी होने का आशीर्वाद दिया था।
साभार पी श्रीवास्तव