-
सिर्फ 217 मामलों में हुआ निपटारा
-
महिलाओं की सुरक्षा पर गंभीर सवाल
-
विपक्ष ने घेरा सरकार
भुवनेश्वर। ओडिशा में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में भारी इजाफा देखने को मिल रहा है, जिससे राज्य की कानून-व्यवस्था पर गहरा प्रश्नचिह्न लग गया है। बालेश्वर से लेकर पुरी तक सामने आए सनसनीखेज मामलों ने समाज और प्रशासन दोनों को झकझोर कर रख दिया है। ओडिशा विधानसभा में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, बीते आठ महीनों में महिलाओं से संबंधित कुल 18,000 आपराधिक मामले दर्ज किए गए हैं।
इनमें से 17,021 मामले अब भी विचाराधीन हैं, जबकि केवल 738 मामलों में आरोप पत्र दाखिल किए गए हैं। सबसे चिंताजनक बात यह है कि अब तक केवल 217 मामलों का ही निपटारा हो सका है और 25 मामलों में अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है। यह स्थिति दर्शाती है कि न केवल अपराध बढ़ रहे हैं, बल्कि न्याय मिलने की प्रक्रिया भी बेहद धीमी और असंतोषजनक है।
समय पर रिपोर्टिंग जरूरी
राज्य के एक पूर्व पुलिस महानिदेशक ने कहा कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों की रिपोर्टिंग में देरी या रिपोर्ट न करना भी पुलिस के लिए बड़ी चुनौती है। उन्होंने कहा कि पुलिस को जानकारी की आवश्यकता होती है। अगर घटनाएं समय पर दर्ज होंगी तो जांच जल्द शुरू हो सकेगी और दोषियों को समय रहते पकड़ा जा सकेगा। लेकिन सामाजिक कलंक के डर से लोग अक्सर सच्चाई छुपाते हैं, जो त्वरित जांच की राह में बड़ी बाधा है।
महिला अधिकार कार्यकर्ता ने जताई चिंता
एक महिला अधिकार कार्यकर्ता ने भी माना कि ओडिशा में आज भी सामाजिक सोच एक बड़ी बाधा है। उन्होंने कहा कि जब भी कोई महिला शोषण या दुष्कर्म की शिकायत दर्ज कराने जाती है, तो समाज सबसे पहले उस महिला के चरित्र पर उंगली उठाता है। यह मानसिकता अपराध की रिपोर्टिंग में बड़ी दीवार खड़ी करती है।
विपक्ष ने सरकार को घेरा, ‘ज़ीरो टॉलरेंस’ सिर्फ नारा
विपक्षी दलों ने इस आंकड़े और हालिया मामलों को लेकर राज्य सरकार पर सीधा हमला बोला है। उनका कहना है कि ‘ज़ीरो टॉलरेंस’ का दावा केवल भाषणों तक सीमित है, जबकि जमीन पर न तो पुलिस सुधार हुए हैं और न ही मामलों में चार्जशीट दाखिल करने की प्रक्रिया में कोई तेजी आई है। वे खराब सजा दर और कमजोर जांच को सरकार की नाकामी बता रहे हैं।
हालांकि राज्य सरकार और ओडिशा पुलिस का दावा है कि महिलाओं से जुड़े संवेदनशील मामलों में विशेष ध्यान दिया जा रहा है और अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए कड़े कदम उठाए जा रहे हैं, लेकिन आलोचकों का कहना है कि अब ये घटनाएं अपवाद नहीं, बल्कि एक संस्थागत लापरवाही का परिणाम बन चुकी हैं।
इस बीच, पीड़ितों और उनके परिवारों को लगातार मानसिक और सामाजिक पीड़ा का सामना करना पड़ रहा है। सरकार के दावों के बावजूद, अपराध के बढ़ते आंकड़े और धीमी न्यायिक प्रक्रिया महिलाओं की सुरक्षा के प्रति गंभीर चिंता पैदा कर रहे हैं।