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प्रताड़ना में छात्रा नहीं, मर गया इंसाफ
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यह पूरे सिस्टम की है असंवेदनशीलता और असफलता की पराकाष्ठा
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क्या हम सिर्फ करते रहेंगे मौत का इंतजार, या करेंगे कुछ बदलने की कोशिश
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छात्रा की चिता में लगी आग की आंच से तड़प रहे हैं ओडिशा के 30 राजस्व जिले और 34 पुलिस जिले
हेमन्त कुमार तिवारी, भुवनेश्वर।
चिता सजी थी बालेश्वर जिले के एक गांव में, लेटी थी एक छात्रा, पर जल गया राज्य का पूरा तंत्र। ओडिशा के 30 राजस्व जिले और 34 पुलिस जिले आज छात्रा की चिता में लगी आग की आंच से तड़प रहे हैं। अंदर का भड़ास आंखों में धधक रहा है और सैकड़ों सवाल खड़े हैं। हम संवेदना जाहिर करें या वेदना निकलने का प्रयास, क्योंकि बालेश्वर की सौम्यश्री बिसी की आत्मदाह की घटना ने पूरे राज्य को झकझोर कर रख दिया है।
20 वर्षीय एक छात्रा, जिसने एक शिक्षक के खिलाफ यौन उत्पीड़न की गंभीर शिकायत की, न्याय की गुहार लगाई, परंतु जब उसकी पीड़ा को नजरअंदाज किया गया, तो वह चुप नहीं रही। उसने अपने जिस्म को आग में झोंक दिया। आज वह छात्रा चिता पर लेट गई, लेकिन उसके साथ पूरा तंत्र जल गया। अब सवाल है: क्या हम सिर्फ मौत का इंतजार करते रहेंगे, या कुछ बदलने की कोशिश करेंगे?
यह घटना केवल किसी एक कॉलेज या एक शिक्षक की करतूत नहीं है, यह पूरे सिस्टम की असंवेदनशीलता और असफलता की पराकाष्ठा है। यह इस बात का प्रमाण है कि जब संस्थाएं शिकायतों को केवल कागजों पर निपटाती हैं, जब न्याय की प्रक्रिया वक्त और रसूख के जाल में उलझ जाती है, तब कोई न कोई सौम्यश्री मजबूरी में अपने शरीर को साक्षी बनाकर न्याय की मांग करती है।
हम बार-बार यही सुनते हैं कि “मामला जांच में है”, “कार्रवाई होगी”, “कड़ी सजा दी जाएगी”, लेकिन यह सब तब कहा जाता है, जब कोई जलकर राख हो चुका होता है। सवाल है कि क्या अब भी हम उसी पुरानी प्रक्रियाओं में उलझे रहेंगे, जो पीड़ितों को इंसाफ देने में असमर्थ रही हैं? क्या अब वक्त नहीं आ गया है कि हम आवेदन से लेकर न्याय तक की प्रणाली को पूरी तरह पुनर्गठित करें?
प्रशासनिक तंत्र में अब भी यह रवैया हावी है कि पहले आवेदन लो, फिर फाइल चलाओ, फिर जांच बैठाओ, फिर रिपोर्ट मंगाओ, और तब जाकर कुछ सोचो। इस बीच, पीड़िता की पीड़ा बढ़ती रहती है, उसका आत्मबल टूटता है, और अंततः हम एक और चिता देखते हैं। क्या यह प्रक्रिया बदलने का समय नहीं आ गया है?
हमें यह सोचने की जरूरत है कि आखिर क्यों एक छात्रा को न्याय पाने के लिए जान की कीमत चुकानी पड़ती है? क्यों शिकायतों को गंभीरता से नहीं लिया जाता? क्या यह विडंबना नहीं कि राज्य भर में उद्घाटन, रैलियां, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और भाषणों के लिए तो सरकारी मशीनरी पूरी तत्परता से तैयार रहती है, परंतु जब किसी छात्रा की जान बचाने की बात आती है, तो वही व्यवस्था नदारद होती है?
अब जरूरत है एक “स्वतंत्र न्याय सुविधा प्रणाली” की, जहां किसी भी पीड़ित की शिकायत पर बिना देरी के कार्रवाई शुरू हो। एक ऐसी व्यवस्था हो जो न्याय को किसी औपचारिकतावादी कागजी प्रक्रिया में न उलझाए, बल्कि उसे पीड़ित के दृष्टिकोण से देखे। जहां सुनवाई के लिए न तो सिफारिश लगे, न ही किसी जनप्रतिनिधि का सहारा चाहिए हो।
कानून को भी इस दिशा में संवेदनशीलता के साथ बदला जाना चाहिए। यौन उत्पीड़न की शिकायतों में विशेष प्रकोष्ठ हों, जिनमें प्रशिक्षित और उत्तरदायी अधिकारी हों। आंतरिक शिकायत समितियां सिर्फ नाम मात्र की न हों, बल्कि उनकी जवाबदेही भी तय की जाए। दोषियों के खिलाफ समयबद्ध कार्रवाई की कानूनी बाध्यता हो।
इतना ही नहीं, ऐसे मामलों में शिक्षा संस्थानों की मान्यता और उनके प्रमुखों की जिम्मेदारी तय हो। यदि किसी संस्थान में बार-बार इस तरह की घटनाएं घट रही हैं, तो वहां के प्रशासनिक प्रमुखों पर सीधी कानूनी जवाबदेही तय होनी चाहिए।
हमारा समाज यदि अब भी नहीं जागा, तो अगली चिता और तेज जल सकती है। आज सौम्यश्री के बहाने पूरा तंत्र कटघरे में है और यह तंत्र केवल सरकार नहीं, हम सब हैं। अगर हम मौन रहेंगे, तो हम भी उस व्यवस्था का हिस्सा बन जाएंगे जिसने एक मासूम छात्रा को जला डाला।
हमें ऐसा सिस्टम चाहिए जहां न्याय व्यवस्था उद्घाटन का फीता नहीं काटे, बल्कि पीड़ित की चीख सुनते ही हरकत में आ जाए। ऐसी व्यवस्था हो जिसमें कोई फिर से चिता पर लेटने को मजबूर न हो, और ना ही पूरा तंत्र जलता नजर आए।
आज सौम्यश्री की मौत एक सवाल है और जवाब हम सबको देना है।