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पुरी में श्रद्धा और आस्था के साथ मनाई गई स्नान पूर्णिमा

  • भगवान जगन्नाथ, देव बलभद्र और देवी सुभद्रा का हुआ पवित्र जलाभिषेक

पुरी। ओडिशा के पुरी स्थित श्रीमंदिर में आज स्नान पूर्णिमा का पावन पर्व अत्यंत श्रद्धा और भक्ति भाव के साथ मनाया गया। इस अवसर पर भगवान जगन्नाथ, भगवान बलभद्र, देवी सुभद्रा और भगवान सुदर्शन को विशेष विधि-विधान के साथ स्नान मंडप पर लाकर जलाभिषेक किया गया।

हजारों की संख्या में श्रद्धालु सुबह से ही मंदिर परिसर और उसके आस-पास एकत्र हो गए थे, ताकि इस दुर्लभ और अत्यंत पवित्र क्षण के साक्षी बन सकें। यह अनुष्ठान रथयात्रा से पूर्व एक अहम धार्मिक पड़ाव माना जाता है, जो भक्तों को भगवान से आध्यात्मिक रूप से जोड़ता है।

पारंपरिक विधियों के साथ प्रारंभ हुआ अनुष्ठान

प्रातःकाल मंगला आरती, अबकाश नीति और बिम्ब स्नान जैसे प्रारंभिक अनुष्ठानों के बाद, चारों देवताओं को मंदिर के गर्भगृह रत्न वेदी से बाहर लाया गया। पारंपरिक ‘पहंडी’ विधि से उन्हें विशेष रूप से निर्मित स्नान मंडप पर लाया गया, जहां उनकी सार्वजनिक उपस्थिति भक्तों के लिए दुर्लभ सौभाग्य मानी जाती है।

108 कलशों से हुआ स्नान

स्नान अनुष्ठान के दौरान 108 पवित्र जलकलशों का उपयोग किया गया, जिनमें चंदन, कपूर, केसर, हरिदा, चुआ (वनस्पति तेल), अगुरु, खस, सुगंधित फूल और अन्य आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियां मिली थीं।

भगवान जगन्नाथ को 35 कलशों से, भगवान बलभद्र को 33 कलशों से, देवी सुभद्रा को 22 कलशों से, और भगवान सुदर्शन को 18 कलशों से स्नान कराया गया। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया मंदिर के सेवायतों द्वारा अत्यंत श्रद्धा और शुद्धता के साथ संपन्न की गई।

गजपति महाराज ने की छेरा पहंरा सेवा

स्नान के बाद गजपति महाराज दिव्यसिंह देब पालकी में सवार होकर स्नान मंडप पहुंचे और परंपरा के अनुसार ‘छेरा पहंरा’ सेवा (स्वच्छता सेवा) अर्पित की। इसके पश्चात आरती और अन्य विधियों से पूजा संपन्न हुई।

हाथी वेश में दिया दर्शन

इसके बाद चारों देवताओं को ‘गजानना वेश’ या ‘हाथी वेश’ धारण कराया गया, जिसमें वे भगवान गणेश के समान प्रतीत होते हैं। यह वेश अत्यंत दुर्लभ और दर्शनीय होता है, जो भगवान की दिव्यता और करुणा का प्रतीक माना जाता है।

अणसर अवधि में देवताओं ने किया प्रवेश

मान्यता के अनुसार, इस विस्तृत जलाभिषेक के बाद भगवान बीमार पड़ जाते हैं। इसलिए उन्हें मंदिर के भीतर ‘अणसर घर’ नामक विश्रामगृह में 15 दिनों के लिए एकांत में रखा जाता है। इस दौरान किसी भी भक्त को दर्शन की अनुमति नहीं होती, केवल दैता सेवायत ही विशेष उपचार और पूजा की जिम्मेदारी निभाते हैं।

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