अशोक पाण्डेय, भुवनेश्वर
भारत विश्व का एकमात्र समृद्ध संस्कृति प्रधान देश है. यहां के ओडिशा प्रदेश के पुरी धाम के भगवान जगन्नाथ आस्था और विश्वास के देवता माने जाते हैं. उनकी प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को अनुष्ठित होनेवाली विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा एक पतितपावनी यात्रा होती है. ऐसी मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ चारों धामों में एक ही जगत के नाथ हैं. भले ही उन्हें अलग-अलग धामों में अलग-अलग नामों से क्यों न पुकारा जाए.
भगवान जगन्नाथ ही वह नाथ हैं, जो बदरीनाथ धाम में स्नान करते हैं, द्वारिका में श्रृंगार करते हैं, पुरी धाम में 56 प्रकार के अन्न का भोग ग्रहण करते हैं और रामेश्वरम धाम में जाकर शयन करते हैं. सच कहा जाय तो पुरी धाम में भगवान जगन्नाथ अपने पतितपावन रुप में विराजमान हैं. पुरी धाम को मर्त्य बैकुण्ठ कहा जाता है, जहां के श्रीमंदिर की रत्नवेदी पर ये अपने बडे़ भाई बलभद्र और अपनी लाड़ली छोटी बहन सुभद्रा के साथ विराजमान हैं और अपने दर्शन मात्र से ही पूरे विश्व को शांति, एकता और मैत्री का पावन संदेश अपनी विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा के द्वारा प्रतिवर्ष देते हैं.
जगन्नाथपुरी के श्रीमंदिर का निर्माण गंगवंश के प्रतापी राजा चोलगंगदेव ने 12वीं सदी में किया था. इसकी ऊंचाई 214 फीट 8 इंच है. यह मंदिर ओडिशा का सबसे ऊंचा जगन्नाथ मंदिर है. यह कलिंग स्थापत्य एवं मूर्तिकला का बेजोड़ उदाहरण है. यह पंचरथ आकार का है. श्रीमंदिर के चारों दिशाओं में चार महाद्वार हैं. पूर्व दिशा का महाद्वार सिंहद्वार कहलाता है जो धर्म का प्रतीक है. उत्तर दिशा के महाद्वार को हस्ती द्वार कहा जाता है जो ऐश्वर्य का प्रतीक है. पश्चिम दिशा के महाद्वार को व्याघ्र द्वार कहा जाता है जो वैराग्य का प्रतीक है और दक्षिण दिशा के महाद्वार को अश्व द्वार कहा जाता है जो ज्ञान का प्रतीक है. श्रीमंदिर के पूर्व द्वार सिंहद्वार पर अरुण स्तम्भ अवस्थित है. यह 10 मीटर ऊंचा है.
कहते हैं कि यह अपनी ऊंचाई से रत्नवेदी पर विराजमान जगन्नाथजी का नित्य दर्शन करता है. यह सूर्यदेव भगवान का वाहन है. 13वीं सदी में यह कोणार्क सूर्यमंदिर में था, जिसे 18वीं सदी में पुरीधाम लाकर यहां पर अवस्थित कर दिया गया. श्रीमंदिर की पाकशाला संसार की सबसे बड़ी खुली पाकशाला है. यहां पर 45 मिनट में 10 हजार जगन्नाथ भक्तों के लिए महाप्रसाद बन सकता है. यहां पर कुल 200 चूल्हे 24 घण्टे जलते रहते हैं. यहां पर लगभग 600 रसोइये हैं, जिन्हें सूपकार कहा जाता है. यहीं पर भगवान जगन्नाथ का 56 प्रकार का भोग/प्रसाद तैयार होता है. जब इसे महाप्रभु को निवेदित कर देवी विमला को निवेदित किया जाता है, तब यह महाप्रसाद बन जाता है जिसे सामखुदी भोग कहा जाता है. श्रीमंदिर के आनंद बाजार में जगन्नाथजी के भक्त इसे महाप्रसाद के रुप में ग्रहण करते हैं. महाप्रसाद अपने आपमें आर्युवेदसम्मत एवं स्वास्थ्यप्रद होता है.
ऐसी मान्यता है श्रीमंदिर में आनेवाला प्रत्येक भक्त अपने स्वार्थ, क्रोध, ईर्ष्या, लालच, अहंकार से मुक्त होकर ही भगवान जगन्नाथ के दर्शन कर सकता है. श्रीमंदिर की इन बाईस सीढ़ियों में से पहली 5 सीढ़ियां हमारी ज्ञानेंद्रियों-आंख, कान, नाक, मुंह, जीभ और त्वचा की प्रतीक हैं. दूसरी 5 सीढ़ियां प्राण, अर्पण, व्यान, उदान और सम्मान की प्रतीक हैं. तीसरी 5 सीढ़ियां -रुप रस,स्वाद,गंध,श्रवण और स्पर्श की प्रतीक हैं. इनके ऊपर की 5 सीढ़ियां-पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु और शारीरिक चेतना की प्रतीक हैं और अंतिम 2 सीढ़ियां बुद्धि और अहंकार की प्रतीक हैं. कहते हैं कि जब भक्त अपने बाईस दोषों का त्याग करता है और पूरी तरह से अपने आपको अहंकारमुक्त करता है. तभी भगवान जगन्नाथ उस भक्त को सच्चे मन से दर्शन देते हैं. श्रीमंदिर की दक्षिण-पूर्व दिशा में महोदधि अवस्थित है. ऐसा कहा जाता है कि यहां पर प्रातःकाल सूर्योदय की शोभा अति मनमोहक होती है. हर रोज हजारों सैलानी यहां पर स्नान करते हैं. यहां की समुद्र की लहरें सदा भगवान जगन्नाथ के पांवों के संस्पर्श के लिए चिंघाड़ती रहती हैं. यहीं पर चैतन्य महाप्रभु, आदिशंकराचार्य, जयदेव, विद्यापति आदि अनेक भक्तगण बैठकर जगन्नाथ की आराधना की थी.
यहां के समुद्र तट को गोल्डेन सी बीच कहा जाता है. यहीं पर अवस्थित है एक घाट है, जिसे स्वर्गद्वार कहा जाता है, जहां पर सनातनी लोगों का अंतिम दाह-संस्कार किया जाता है. एक मान्यता के अनुसार यहां पर अंतिम दाह-संस्कार पानेवाले व्यक्ति की आत्मा सदा-सदा के लिए भवबंधन से मुक्त हो जाती है. पुरी के समीप है कोणार्क सूर्य मंदिर जिसका अपना एक अलग ही महत्त्व है. कहा जाता है कि श्रीकृष्ण के पुत्र शाम्बदेव ने यहीं पर सूर्योपासनाकर कुष्ठ रोग से मुक्ति पाई थी. इसका निर्माण 1250 में उत्कल के नरेश लांगुला नरसिंहदेवजी ने किया था. 1200 शिल्पिकारों की कड़ी मेहनत से 12 साल में इसका निर्माण-कार्य संपन्न हुआ था. यहां पर प्रस्तर का नवग्रह मंदिर भी है.
भगवान जगन्नाथ की विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा के लिए प्रतिवर्ष तीन नये रथ बनाये जाते हैं. रथ निमार्ण की अत्यंत गौरवशाली परम्परा रही है. इस कार्य को वंशानुक्रम से सुनिश्चित बढ़ईगण ही करते हैं. निमार्ण का कार्य पूर्णतः शास्त्र सम्मत विधि से होता है. विशेषज्ञों का मानना है कि तालध्वज रथ, देवदलन रथ और नंदिघोष रथ पूरी तरह से वैज्ञानिक आधार पर निर्मित होते है. रथ निर्माण कार्य में कुल 205 प्रकार के अलग-अलग सेवायत सहयोग देते है. रथ-निर्माण कार्य में लगभग दो महीने का समय लगता है. रथयात्रा वैसे तो एक दिन की ही होती है, लेकिन सच पूछा जाये तो यह महोत्सव वैशाख मास की अक्षय तृतीया से आरंभ होकर आषाढ़ मास की त्रयोदशी तक चलता है जिसमें अनेक उत्सव जैसे-रथ निर्माण,चंदन यात्रा, स्नान यात्रा, अणासरा, नव यौवन दर्शन, रथयात्रा और बाहुड़ा/वापसी श्रीमंदिर यात्रा आदि प्रमुख उत्सव प्रतिवर्ष बडे़ धूम-धाम से मनाये जाते है.
हर वर्ष वसंतपंचमी के दिन से ही रथ निर्माण के लिए काष्ठसंग्रह का कार्य आरंभ हो जाता है. जिसप्रकार पांच तत्वों के योग से मानव शरीर बना है ठीक उसी प्रकार देवविग्रहों के रथ के निर्माण में पांच तत्व, काष्ठ, धातु, रंग, परिधान एवं सजावट की समग्रियों का प्रयोग होता है. पौराणिक मान्यता के अनुसार रथ मानव शरीर का प्रतीक है,रथी आत्मा का, सारथी बुद्धि का, लगाम मन का और अश्व इंद्रियगण के प्रतीक हैं. रथ निर्माण के बाद आषाढ़ शक्ल प्रतिपदा तिथि को श्रीमंदिर के सामने लाया जाता है. रथ मंदिर के सामने उत्तर दिशा की ओर मुँह करके खड़े होते हैं. तीनों रथों को इस प्रकार सूक्ष्म कोण से अलग-बगल खड़ा किया जाता है कि रस्सी खींचने पर वे बड़दाण्ड बड़े मार्ग के बीच में आ सकें. रथ संचालन के लिए झंडियाँ हिलाकर निर्देश दिया जाता है कि रथ को किस कोण पर खींचें.
रथयात्रा को गुण्डिचा यात्रा भी कहा जाता है. रथयात्रा वैसे तो एक दिन की होती है लेकिन सच पूछा जाये तो यह महोत्सव वैशाख मास की अक्षय तृतीया से आरंभ होता है और आषाढ़ मास की त्रयोदशी तक चलता है, जिसमें अनेक उत्सव जैसे-रथ निर्माण, चंदन यात्रा, देव स्नान यात्रा, अणासरा, नव यौवन दर्शन, रथयात्रा और बाहुड़ा अर्थात् जगन्नाथजी की वापसी श्रीमंदिर यात्रा आदि प्रमुख उत्सव प्रतिवर्ष बडे़ धूम-धाम से प्रतिवर्ष मनाये जाते हैं. गुण्डीचा यात्रा/जनकपुरी यात्रा/घोष यात्रा/नौ दिन यात्रा कहते हैं. रथयात्रा के दिन देव-प्रतिमाओं को रथ में विराजमान कराने के लिए विशेष परंपरा में नचा-नचाकर, ओड़िशी परम्परांगत गाजे बाजे के साथ लाया जाता है, जिसे ‘पहण्डी विजय’ कहा जाता है. ऐसा लगता है कि जैसे देव-प्रतिमाएँ स्वयं चलकर आ रही हों. इसी प्रकार देव विग्रहों को रथारुढ़ कराते समय नचा-नचाकर बाजे-गाजे के साथ रथारुढ़ किया जाता है.
तीनों देव-विग्रहों को रथ में विराजमान कराने के बाद चौथी प्रतिमा ‘सुदर्शन भगवान को भी रथारुढ़ कराया जाता है. चतुर्धा मूर्तियों के रथ पर विराजमान होने के बाद पुरी के गजपति महाराज पारंपरिक रीति से पालकी में बैठकर आते हैं और रथ पर चढ़कर एक सोने की मूठवाली झाडू से रथ की सफाई करते है और चंदन मिश्रित जल छिड़कते हैं. इसे ‘छेरापहँरा’ कहा जाता है. इस नीति से स्पष्ट होता है कि पुरी के गजपति महाराजा जगन्नाथ जी के प्रथम सेवक एवं अन्यतम सेवक हैं. मंदिर सिंहद्वार से गुण्डीचा मंदिर 3 किलोमीटर दूर है, लेकिन रथ को वहाँ तक पहुँचने में छह घण्टे से लेकर 24 घण्टे तक का समय लग जाता है. रथ खींचने के लिए नारियल की जटा से निर्मित मोटे मोटे रस्से व्यवहार में लाये जाते हैं, जो रथ के अक्ष से बांधे जाते हैं. हर दो चक्कों के बीच एक अक्ष होता है, जिनका अलग-अलग नाम है. प्रत्येक चक्के को अक्ष से जोड़ने के लिए छह ईंच व्यास का छेद किया जाता है और अत्यंत सूक्ष्म जटिल कारीगरी कौशल से रथ की संरचना होती है.
यह काफी मजबूत से सज्जित किया जाता है. लोगों की भीड़ जब जोश से रथ को खींचती है तो गति को काबू में करने के लिए विशालकाय काष्ठखण्ड को ब्रेक रुप में प्रयोग किया जाता है, जो रथ के अगले भाग में रस्सियों के सहारे लटका होता है. अनेक बढ़ई संचालक रथ के अगले दण्ड पर इन रस्सियों को पकड़े हुए बैठे होते हैं. रथ खींचने के लिए रस्सी दो प्रकार की होती है-सीधी और घुमावदार. हरेक रथ में चार-चार रस्सियाँ लगी होती हैं. इनको विभिन्न चक्कों के अक्ष से विशेष प्रणाली में लपेट कर गाँठ डालकर बाँधा जाता है.
चतुर्धा मूर्तियों के रथ पर विराजमान होने के बाद पुरी के गजपति महाराजा श्रीश्री दिव्य सिंहदेवजी पारंपरिक रीति से पालकी में बैठकर आते है और रथ पर चढ़कर एक सोने की मूठ वाली झाडू से छेरापहंरा करते हैं. चंदन मिश्रित जल छिड़कते हैं और सोने की मूठवाले झाड़ू से छेरापहंरा करते हैं.
रथों को उनके सारथी और घोड़ों के साथ जोड़ा जाता है और ‘जय जगन्नाथ!’ की हर्ष ध्वनि के साथ रथयात्रा शुरु होती है. सबसे आगे बलभद्रजी का रथ तालध्वज चलता है. उसके बाद देवी सुभद्राजी का देवदलन रथ चलता है और अंत में जगन्नाथजी का रथ नन्दिघोष चलता है. भगवान जगन्नाथ अपनी रथयात्रा दीन-दुखियों, अनाथों, पतितों एवं अपने वैसे भक्तों जिनको जगन्नाथमंदिर में जाने की अनुमति नहीं होती उनको दर्शन देने, स्वयं उनके समक्ष उपस्थित होकर उनको मोक्ष का अभय वरदान देने, अपने भक्त सालबेग की मनोकामना की पूर्ति करने, रास्ते में अपनी मौसी मां के हाथों से बने अपने प्रिय भोजन पूड़ापीठा ग्रहण करने और अपनी जनकपुरी गुण्डीचाघर में सात दिनों तक विश्राम के लिए साल में एकबार निकलते हैं. सच कहा जाये तो विश्व मानवता के प्राण जगन्नाथजी पूरे विश्व को जाति, भाषा, सम्प्रदाय, धर्म के साथ-साथ समस्त मानवीय विकारों को दूर करने के लिए और शाश्वत जीवन मूल्यों को अपने भक्तों के व्यक्तिगत जीवन में अपनाने का पावन संदेश देने के लिए ही अपनी विश्व प्रसिद्ध पतितपावनी रथयात्रा पर निकलते हैं, जिनके रथारुढ़ दर्शन मात्र से ही भक्त मोक्ष को प्राप्त करता है. जय जगन्नाथ.