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महाप्रभु श्री जगन्नाथ की रथयात्रा के दर्शन का महत्त्व 100 यज्ञ के पुण्य के बराबर

  • रथारुढ़ भगवान जगन्नाथ के दर्शन मात्र से मानव-जीवन हो जाता है सार्थक

पुरी। ओडिशा प्रदेश की आध्यात्मिक नगरी श्रीजगन्नाथ पुरी में प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को अनुष्ठित होनेवाली जगत के नाथ भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा एक विश्वप्रसिद्ध रथयात्रा होती है, जिसे दशावतार यात्रा, पतितपावनी यात्रा, गुण्डिचा यात्रा, जनकपुरी यात्रा, घोष यात्रा तथा नव दिवसीय यात्रा भी कहा जाता है। 2024 की भगवान जगन्नाथ की विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा कल 07 जुलाई को है। पद्मपुराण के अनुसार आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि सभी कार्यों के लिए सिद्धिदात्री तिथि होती है। रथयात्रा भगवान जगन्नाथ के प्रति वास्तविक श्रद्धा, भक्ति,  प्रेम, आत्मनिवेदन, करुणा और अटूट विश्वास को बनाए रखने तथा सबसे बड़ी बात आत्मअहंकार के त्याग का एक दिव्य, अलौकिक तथा अनूठा सांस्कृतिक महोत्सव है जिसमें रथारुढ़ भगवान जगन्नाथ के दर्शन मात्र से मानव-जीवन सार्थक हो जाता है। मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। रथयात्रा भारतीय आत्मचेतना का शाश्वत प्रतीक है। रथयात्रा के दिन भगवान जगन्नाथ के बड़े भाई बलभद्रजी का रथ तालध्वज रथ, देवी सुभद्रा देवी का देवदलन रथ तथा भगवान जगन्नाथ जी का नंदिघोष रथ मानव-शरीर के प्रतीक होते हैं, वहीं उनके रथि आत्मा होती है, सारथी बुद्धि होती है, अश्वों की लगाम मन का और रथ में जुते सभी अश्व मानवीय इन्द्रियों के प्रतीक होते हैं। रथयात्रा के पावन दिवस पर तीनों ही रथ चलते-फिरते मंदिर के रुप में होते हैं। यह यात्रा वास्तव में एक सांस्कृतिक महोत्सव होती है जिसमें भाषा, जाति, धर्म, सम्प्रदाय और प्रांत का कोई भेदभाव नहीं होता है, क्योंकि भगवान जगन्नाथ स्वयं विश्व मानवता के केन्द्र बिन्दु हैं, विश्व के पालनहार हैं। वे विश्व के समस्त देवों के समाहार विग्रह स्वरुप हैं। वे सौर, वैष्णव, शैव, शाक्त, गाणपत्य़, बौद्ध और जैन भी हैं क्योंकि जो उनको जिस रुप में चाहता है वह उनकी उसी रुप में पूजा-आराधना करता है। वे कलियुग के एकमात्र पूर्णदारुब्रह्म हैं जो अवतार नहीं अपितु अवतारी हैं। उनको पूर्ण फल नारियल बहुत पसंद है। श्रीमंदिर के सिंहद्वार के प्रवेशद्वार पर दीवारों पर अष्टलक्ष्मी- आदिलक्ष्मी, महालक्ष्मी, गजलक्ष्मी,  धनलक्ष्मी,  धैर्य लक्ष्मी, संतान लक्ष्मी, जय-विजय लक्ष्मी और विद्या लक्ष्मी का जीवंत समाहार स्वरुप देखने को मिलता हैं जिनके रथयात्रा के दिन प्रथम दर्शन का अपना आध्यात्मिक तथा धार्मिक महत्त्व होता है। जगन्नाथ जी पुरी धाम के अपने श्रीमंदिर के रत्नसिंहासन पर 16 कलाओं से सुसज्जित हैं। श्रीकृष्ण भगवान के अवतार के रुप में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के दर्शन का महत्त्व 100 यज्ञ कराने के पुण्य के बराबर माना जाता है। रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ को दशावतारों के रुप में उनकी पूजा होती है। श्रीमंदिर के चार महाद्वारःपूर्व का प्रवेशद्वार सिंहद्वार कहलाता है, जो धर्म का प्रतीक है जहां से जगन्नाथभक्त श्रीमंदिर की 22सीढियों को पारकर अर्थात् अपने 22 मानवीय दोषों का त्यागकर ही श्रीमंदिर के रत्नवेदी पर विराजमान भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए जाते हैं। पश्चिम का द्वार व्याघ्रद्वार है जो वैराग्य का प्रतीक है। श्रीमंदिर के उत्तर दिशा के द्वार का नाम हस्ती द्वार है जो ऐश्वर्य का प्रतीक है और श्रीमंदिर के दक्षिण दिशा के द्वार का नाम अश्व द्वार है जो ज्ञान का प्रतीक स्वरुप है। भगवान जगन्नाथ शबर जनजातीय समुदाय से जुडे हैं और शबर समुदाय में यह प्रथा है कि उनके देवता काठ के होते हैं शबर समुदाय उनकी पूजा गोपनीय रुप में करते हैं। भगवान जगन्नाथ स्वयं कहते हैं कि जहां सभी लोग मेरे नाम से प्रेरित होकर एकत्रित होते हैं, मैं वहां अवश्य विद्यमान रहता हूं। श्रीमंदिर के सिंहद्वार के ठीक सामने श्रीमंदिर के दशावतार रुप के मध्य में अष्टलक्ष्मी विराजमान हैं जिनके दर्शन मात्र से भक्तों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हो जातीं हैं। इसीलिए भगवान जगन्नाथ भक्तों की अटूट आस्था एवं विश्वास के देवता हैं जिनके रथयात्रा के दिन रथारुढ दर्शनकर विश्व मानवता को शांति, एकता तथा मैत्री का पावन संदेश मिलता है।

श्रीजगन्नाथ पुरी धाम वास्तव में एक धर्मकानन है जहां पर आदिशंकराचार्य,  चैतन्य,  रामानुजाचार्य,  जयदेव,  नानक, कबीर और तुलसी जैसे अनेक संत-महात्मा पधारे और भगवान जगन्नाथ की अलौकिक महिमा को स्वीकारकर उनके अनन्य भक्त बन गये।

2024 की रथयात्रा के दिन 07 जुलाई को भोर में श्रीमंदिर के रत्नवेदी से चतुर्धादेव विग्रहों को एक-एककर पहण्डी विजय कराकर उनके अलग-अलग रथों पर आरुढ किया जाता है। भगवान जगन्नाथ के रथ का नाम नंदिघोष रथ है जिस पर उनको आरुढ़ किया जाता है। बलभद्रजी के रथ का नाम तालध्वज रथ है , उस रथ पर उनको आरुढ़ किया जाता है तथा देवी सुभद्रा के रथ का नाम देवदलन रथ है जिसपर देवी सुभद्राजी और सुदर्शन जी को आरुढ़ किया जाता है। रथयात्रा के दिन सबसे आगे तालध्वज रथ बड़दाण्ड पर आगे-आगं चलेता है। उसके बाद देवी सुभाद्रा मां का देवदलन रथ तथा सबसे आखिर में भगवान जगन्नाथ का रथ नंदिघोष रथ जय जगन्नाथ की गगनभेदी चयकारे के साथ श्रीमंदिर के सेवायतों तथा भक्तों द्वारा खीचा जाता है और उन्हें खीचकर लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित गुण्डीचा मंदिर लाया जाता है।

प्रतिवर्ष तीनों रथों का निर्माण नये रुप में होता है। 2024 के रथ निर्माण के लिए पवित्र काष्ठ्य संग्रह का 02 फरवरी, 2024 अर्थात् इस वर्ष की वसंतपंचमी के दिन से आरंभ हुआ था। नये रथ प्रतिवर्ष बनाये जाते हैं और पुराने रथों को तोड़ दिया जाता है। काष्ठसंग्रह का कार्य मुख्य रुप से दशपल्ला के जंगलों से होता है। रथों पर प्रतिवर्ष लगनेवाले पार्श्वदेवगण आदि नये बनते हैं। ऋग्वेद तथा यजुर्वेद में रथ के उपयोग का वर्णन मिलता है। रथनिर्माण का कार्य वंश परम्परानुसार भोईसेवायतगण अर्थात् श्रीमंदिर से जुडे बढईगण ही करते हैं। इनको पारिश्रमिक के रुप में पहले जागीर दी जाती थी लेकिन जागीर प्रथा समाप्त होने के बाद उन्हें अब श्रीमंदिर की ओर से पारिश्रमिक दिया जाता है। रथ-निर्माण में कुल लगभग 205 प्रकार के सेवायतगण सहयोग करते हैं। जिस प्रकार पांच तत्वों को योग से मानव शरीर का निर्माण हुआ है ठीक उसी प्रकार से पांच तत्वःकाष्ठ, धातु, रंग, परिधान तथा सजावटी सामग्रियों के योग से रथों का निर्माण होता है । रथनिर्माण का कार्य पुरी के गजपति महाराजा श्री श्री दिव्य सिंहदेवजी महाराजा के राजमहल श्रीनाहर के ठीक सामने रथखल्ला में होता है। रथयात्रा के एक दिन पूर्व आषाढ शुक्ल प्रतिपदा के दिन तीनों रथों को खीचकर लाकर श्रीमंदिर के सिंहद्वार के सामने उत्तर दिशा की ओर मुंह करके खड़ा कर दिया जाता है। रथयात्रा के दिन तीनों रथों को इसप्रकार सूक्ष्म कोण से अगल-बगल ऐसे खड़ा किया जाता है कि रथों के रस्सों को खीचने में बडदाण्ड अर्थात् श्रीमंदिर के सिंहद्वार के ठीक सामने की चौड़ी और बड़ी सड़क के बीचोंबीच ही तीनों रथ चलें। रथ-संचालन के लिए झण्डियों को हिला-हिलाकर निर्देश दिया जाता है। चतुर्धा देवविग्रहों में जगन्नाथ जी ऋग्वेद के,  बलभद्रजी सामवेद के, सुभद्राजी अथर्वेद की तथा सुदर्शनजी यजुर्वेद के जीवंत स्वरुप हैं। भगवान जगन्नाथ को प्रतिदिन निवेदित होनेवाला महाप्रसाद साक्षात अन्नब्रह्म है जिसे महालक्ष्मीजी सभी जीवों के लिए अन्नपूर्णा के रुप में स्वयं पकातीं हैं। रथयात्रा के दिन भगवान जगन्नाथ का शरीर भक्त के स्थूल, सूक्ष्म तथा कर्मशील शरीर का वास्तविक स्वरुप होता है जिसके लिए रथयात्रा के दिन पहण्डी विजय के साथ-साथ चतुर्धा देवविग्रहों के रथारुढ कराते समय देव विग्रहों के शरीर की पूरी सुरक्षा तथा आरामदायाक यात्रा के लिए हरसंभव उत्कृष्ट व्यवस्था की जाती है।

सच तो यह भी है कि रथयात्रा तो कहने के लिए मात्र एक दिन की होती है लेकिन वास्तव में यह सांस्कृतिक महोत्सव वैशाख मास की अक्षय तृतीया(इस वर्ष 10 मई) से आरंभ होकर आषाढ माह की त्रयोदशी, नीलाद्रि विजय (19 जुलाई) तक चलेगी। रथयात्रा के दिन देवविग्रहों को जिस प्रकार से आत्मीयता के साथ सेवायतगण कंधे से कंधा मिलाकर एक-एक पग आगे बढाते हुए पहण्डी विजय कराकर लाते हैं और उनको रथारुढ करते हैं वह सचमुच अलौकिक दृश्य होता है। पहण्डी के आगे-आगे परम्परागात बनाटी प्रदर्शन, गोटपुअ नृत्य, ओडिशी नृत्य प्रदर्शन, रंगोली आदि की सजावट देखते ही बनती है। चतुर्धादेवविग्रहों को रथारुढ कराने के उपरांत पुरी गोवद्धन मठ के 145वें पीठाधीश्वर जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानन्द सरस्वती महाभाग अपने परिकरों के साथ आकर तीनों रथों पर जाकर रथों की सुव्यवस्था आदि का अवलोकन करते हैं और अपना आत्मनिवेदन प्रस्तुत करते हैं। उसके उपरांत भगवान जगन्नाथ जी के प्रथम सेवक पुरी के गजपति महाराजा श्री श्री दिव्यसिंहदेवजी महाराजा सफेद वस्त्रधारणकर अपने राजमहल श्रीनाहर से पालकी में सवार होकर आते हैं और तीनों रथों पर चंदनमिश्रित जल छीडकर छेरापंहरा का अपना पवित्र दावित्व निभाते हैं। रथों को उनके घोडों तथा सारथी के साथ जोडा जाता है। “जय जगन्नाथ“ तथा हरिबोल के जयघोष के साथ रथयात्रा आरंभ होती है। रथ खीचते समय रस्से दो प्रकार के उपयोग में लाये जाते हैं। एक सीधे रस्से तथा दूसरे घुमामवदार रस्से। तीनों रथों में चार-चार रस्से लगे होते हैं जिनको विभिन्न चक्कों के अक्ष से विशेष प्रणाली से लपेटकर और गांठ डालकर बांधा जाता है। गुण्डीचा मंदिर जाने के रास्ते में भगवान जगन्नाथ रास्ते में अपनी मौसी के हाथों से बना पूड़पीठा ग्रहण करते हैं। वे सात दिनों तक गुण्डीचा मंदिर में विश्राम करते हैं। सच कहा जाय तो विश्वमानवता के प्राण जगत के नाथ समस्त मानवीय विकारों को दूर करने के लिए और जीवन के शाश्वत मूल्यों को अपने भक्तों को उनके व्यक्तिगत जीवन में अपनाने हेतु ही इस वर्ष भी आगामी 07 जुलाई को अपनी विश्वप्रसिद्ध रथयात्रा करेंगे। भगवान जगन्नाथ अपने देव विग्रह समाहार स्वरुप में सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त और लौकिक-अलौकिक के समाहार स्वरुप हैं। इसलिए उनकी विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा धर्म, भक्ति और दर्शन की त्रिवेणी है जिसमें भक्त उनके दर्शन के गोते लगाकर भक्ति, शांति, एकता, मैत्री, सद्भाव, प्रेम और करुणा का महाप्रसाद प्राप्त करता है। गौरतलब है कि 2024 वर्ष की रथयात्रा का हेरापंचमी आगामी 11 जुलाई को है। बाहुड़ा यात्रा( चतुर्धा देवविग्रहों की श्रीमंदिर वापसी यात्रा) आगामी 15 जुलाई को है। सोनावेष 17 जुलाई को है तथा नीलाद्रि विजय 19 जुलाई को है ।

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