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संकट में गढ़ रहे हैं एकता की नई कहानी
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लॉकडाउन में खेल-खेल में ढूंढा कमाई का जरिया
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आमदनी का करते हैं बराबरी का बंटवारा
अमित मोदी, अनुगूल
बात कोई नहीं है, लेकिन आज का समय बलवान है. संकट के दौर में अक्सर आप कमाई के बराबरी के बंटवारे को लेकर पार्टनरशिप को टूटते हुए सुना होगा, लेकिन कुछ अल्पायु के बच्चे इसके लिए मिशाल बन गये हैं. संकट के दौर में ये न सिर्फ एकता की एक नई कहानी रच रहे हैं, बल्कि व्यवसायियों के लिए भी प्रेरक बन गये हैं.
बयां-ए-दास्ता अनुगूल शहर से महज पांच-छह किलोमीटर की दूरी पर बसे शाबल भंगा नामक गांव का है. इस गांव के कुछ बच्चे अपनी कार्य पद्धति तथा मेहनत से सभी बेरोजगारों के लिए उदाहरण बन गए हैं. लॉकडाउन में अपने परिवार का पेट पालने के लिए इन बच्चों ने कमाई एक ऐसा रास्ता अख्तियार किया है, जो ओडिशा के लिए आम बात है, लेकिन आज के इस समय और सोच की दृष्टिकोण काफी महत्वपूर्ण है. लॉकडाउन में परिवार की कमाई ठप होने के कारण गांव के चार बच्चे एकजुट होते हैं और रोजना ताल बेचकर 200 से 250 रुपये की कमाई कर लेते है.
ये बच्चे हैं गांव के चरबाटिया साही में रहने वाले श्रीकांत बेहरा (19), राजू बेहरा (17), लीपु बेहरा (14) और प्रवीण बेहरा (14). इनकी कहानी पूरे इलाके में एक उदाहरण प्रस्तुत कर रही है. इन चारों में से श्रीकांत ताल के पेड़ में चढ़ता और ताल को काटकर नीचे फेंकता है. वहीं बाकी तीनों पेड़ से गिरने के बाद सभी तालों को इकठ्ठा कर गांव से गुजर रही पक्की सड़क पर ले जाते हैं. कड़ाके की धूप में एक पेड़ की छांव में यह चारों ताल को एक-एक कर काटकर बेचते हैं. 10 रुपये में तीन ताल बेचते हैं. यह बच्चे रोजाना कम से कम 800 से 1000 रुपये के ताल बेच देते हैं. दिनभर के बाद हुई आमदनी को आपस में बराबर का हिस्सा कर लेते हैं.
इस दौरान जो सबसे महत्वपूर्ण बात होती है, वह यह है कि कमाई बांटते समय कोई भेदभाव नहीं होता है कि किसने कितनी मेहनत की है.
इन बच्चों से बातचीत में पता कि श्रीकांत के पिता एक लोहा ग्रिल की दुकान में वेल्डिंग का काम करते हैं. लॉकडाउन में काम काफी प्रभावित है और कमाई का कोई साधन नहीं है. राजू के पिता का स्वर्गवास हो गया है, तो घर की जिम्मेदारी वह अपनी मां के साथ निभा रहा है. वहीं लीपू ओर प्रवीण की बात करें तो दोनों के पिता ईंट की फैक्ट्री में काम करते हैं, जो फिलहाल बंद है. यह दोनों नौवीं कक्षा के छात्र हैं और स्कूल की छुट्टी होने के कारण खाली हैं.
घर में कमाई का और कोई साधन ना होने की वजह से खेल-खेल में इन्हें यह काम करने का मन बनाया और फिर लक्ष्य को हासिल करने में जुट गये. इन दोनों का कहना है कि रोजाना की हो रही कमाई को ले जाकर वे अपनी मां को दे देते हैं. इन बच्चों की मेहनत और व्यवसाय में एकता आज स्थानीय इलाके में चर्चा का केंद्र बनी हुई है.