भारतीय संस्कृति दो धाराओं में प्रवाहित हुई हैं. ब्राह्मण संस्कृति और श्रमण संस्कृति। श्रमण संस्कृति में जैन और बौद्ध का समावेश होता है। श्रमण संस्कृति में श्रमणों का विशेष प्रभाव रहा है। अनेक जैन श्रमणो, जैन आचार्यों ने अपने कर्तृत्व व व्यक्तित्व से समाज का मार्गदर्शन कर उसे सही राह दिखाई है। जैन आचार्यों की श्रृंखला में एक महनीय नाम है – आचार्य श्री महाश्रमण। जो युग की नब्ज टटोलकर युगीन समस्याओं के समाधामन सुझाते हैं। उन्हें सम्पूर्ण धर्मसंघ द्वारा युगप्रधान पद से अभिषिक्त किया जा रहा है।प्रस्तुत है 10 मई 2022 को उनके युगप्रधान पदाभिषेक एवं जन्म षष्ठिपूर्ति के अवसर पर परिचयात्मक आलेख –
लेखक : मुनि जिनेश कुमार
श्रमण संस्कृति के अनमोल रत्न आचार्य श्री महाश्रमण प्रकृति से सहज, सरल, शांत, विनम्र और निस्पृह है। उनकी अप्रमत्तता, श्रमशीलता, साधना, समय प्रबन्धन बेजोड है। प्रसन्न मुख मुद्रा के स्वामी आचार्य श्री महाश्रमण का आभामंडल पवित्र व निर्मल है।
वि.सं. 2019 वैशाख शुक्ला नवमी के दिन राजस्थान के चुरु जिले के सरदार शहर में उनका जन्म हुआ। झुमरमलजी एवं नेमादेवी दुगड़ के सुपुत्र मोहन जाति से ओसवाल हैं। आठ भाईयों में सातवें भाई मोहन जब सात वर्ष के हुए तब उनके सिर से पिता का साया उठ गया।
मात्र 12 वर्ष की उम्र में वि.सं. 2031 वैशाख शुक्ला चतुर्दशी के दिन आचार्य श्री तुलसी की आज्ञा से मुनिश्री सुमेरमलजी स्वामी, लाडनूं (मंत्री मुनि) के कर कमलों से सरदारशहर में दीक्षित हुए। वे मोहन से मुनि मुदित बने। साध्वाचार में सजग रहते हुए आगम, हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत व अंग्रेजी भाषा का तलस्पर्शी अध्ययन किया। उनकी योग्यता का अंकन करते हुए आचार्य श्री तुलसी ने उन्हें महाश्रमण के अलंकरण से अलंकृत किया। आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने वि. सं. 2054 भाद्रव शुक्ला व्दादशी के दिन गंगाशहर में उन्हें युवाचार्य के पद पर मनोनीत किया और वि.सं. 2067 वैशाख शुक्ला दशमी के दिन सरदारशहर में वे आचार्य बने। तत्पश्चात् उन्होंने आचार्यश्री महाप्रज्ञ व्दारा घोषित अहिंसा यात्रा को पूर्ण किया।
9 नवम्बर 2014 को दिल्ली के लालकिले से अहिंसा यात्रा प्रारंभ की, जो भारत, नेपाल व भूटान तीन प्रदेशों में लगभग 18 हजार किलोमीटर पदयात्रा कर जन-जन को अहिंसा संदेश दिया।
अहिंसा यात्रा के जरिए राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, बिहार, मध्यप्रदेश, दिल्ली उत्तरप्रदेश, नेपाल आदि क्षेत्रों की यात्रा की यात्रा के साथ-साथ आगम संपादन का कार्य, दैनिक प्रवचन, क्षेत्रों की सार संभाल, साधु-साध्वियों के पठन पाठन का क्रम नियमित रूप से चलता रहा। आचार्य श्री प्रवचन के माध्यम से भव्य आत्माओं को कषाय मुक्त, नशा मुक्त जीवन जीने की प्रेरणा देते है। जनता नैतिक, संयमी, ईमानदारी युक्त, जीवन की ओर अग्रसर रहे, यह सलक्ष्य प्रयत्न करते है। फलस्वरुप हजारों लाखों लोग नशामुक्ति के लिए संकल्पबध्द हुए।
स्थिरयोगी आचार्य श्री महाश्रमण समाज सुधारक भी है। समाज में व्याप्त विकृतियों, कुरुढ़ियों को प्रश्रय न देने का आह्वान करते हैं। जसोल चातुर्मास में उस महापुरुष की प्रेरणा से सैंकड़ों भाई-बहनों ने मृत्युभोज व तपस्या के उपलक्ष में भोज न करने का संकल्प लिया।
आचार्य श्री महाश्रमण अनुत्तर साधक हैं। अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित रखते हुए, नित्य प्राय: दो-तीन घण्टे जप, ध्यान, स्वाध्याय, आसन आदि के लिए लगाते है।
आचार्य श्री महाश्रमण ने राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, हरियाणा, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, पंजाब, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, बिहार, आसाम, बंगाल, नेपाल, भूटान, झारखण्ड, उडीसा, तामिलनाडु, केरल, पुदुचेरी आदि क्षेत्रों की 51 हजार किलोमीटर से ज्यादा की यात्रा की है। यात्रा के दौरान आध्यात्मिक जागृति व उत्थान का कार्य अनवरतरुप से जारी है।
आचार्य श्री महाश्रमण जहाँ कुशल प्रवचनकार हैं, वहीं कुशल प्रशासक भी है। साहित्यकार हैं, संगीतकार भी हैं। वे आचार्य श्री तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ के अवदानों को गति दे रहे हैं। भगवान महावीर के संदेश को जन-जन में प्रसारित कर रहे हैं। उनकी वाणी में, जहां माधुर्य व गांभीर्य है, वहीं सहजता, सरलता और सरसता भी है। सिध्दांतवादी आचार्य श्री महाश्रमण को सिध्दांतो से समझौता कतई पसंद नहीं है। उनकी परंपरा संघ के प्रति अटूट आस्था है। वे स्त्नाधिक मुनियों का पूर्ण सम्मान करते है और छोटे संतो को पूर्ण स्नेह देते है।
जैसे हिन्दुओं में गंगा, मुसलमानों में मक्का मदीना, ईसाईयों में वेटिकन सिटी का, यहूदियों में येरुशलम का, बौध्दों में गया का महत्व है, वैसे ही तेरापंथ धर्मसंघ में आचार्य श्री महाश्रमण का महत्त्व है। आचार्य श्री महाश्रमण दीर्घायु हो, चिरायु हो यही उनके युगप्रधान पदाभिषेक षष्ठिपूर्ति जन्मोत्सव एवं 13 वे पट्टोत्सव पर मंगलकामना करते हैं।