भुवनेश्वर।भारतीय संस्कृति पर्व प्रधान संस्कृति रही है। पर्व अतीत की घटनाओं के प्रतीक होते हैं। वर्तमान के लिए प्रेरणा स्त्रोत होते हैं और भविष्य में संस्कृति को जीवित रखने वाले होते हैं। पर्व से नया उल्लास व प्रकाश मिलता है। आपस में सौहार्द बढ़ता है। मैत्री की धारा प्रवाहित होती है। बंगाल की जनश्रुति के अनुसार 12 मास में 13 पर्व होते हैं। सात वार में आठ पर्व होते हैं। हिन्दुशास्त्र के अनुसार 33 करोड़ देवीदेवता हैं, उतने ही पर्व हैं। कुछ पर्व सामाजिक, राष्ट्रिय व धार्मिक चेतना को जगाने वाले होते हैं। कुछ पर्व ऐसे होते है, जो समुदाय विशेष से संबंध रखते हैं। कुछ पर्व ऐसे भी हैं जिनका लोक जीवन पर व्यापक प्रभाव है। उनमें एक पर्व है होली। फाल्गुन पूर्णिमा के दिन रंग और गुलाल के साथ मनाये जाने वाला त्यौहार होली की व्याख्या भिन्न-भिन्न तरीकों से की गयी है। आपसी यह मन मुटाव मिटाकर एक दूसरे से गले मिलने का सामाजिक पर्व है। प्रेम भाईचारे सदभाव और सहभाग का प्रतीक त्योहार है इसलिए जाति, सम्प्रदाय, अमीर-गरीब का भेद मिटाकर होली खेली जाती है। व्यक्ति के भीतर छीपी दमित इच्छाओं को अभिव्यक्त करने का मनोवैज्ञानिक त्योहार है। होली पवित्रता का प्रतीक है। ईश्वर के साथ संबंध स्थापित करने का पर्व है। आत्मा और ब्रह्म का मिलन पर्व है। होली शब्द की निष्पति ह, ओ, ल, ई इन चारों के संयोग से बना है। इसका तात्पर्य है आत्मा का परमात्मा से मिलन। यह ससीम का असीम में से स्वयं का सर्व से व्यक्ति का ब्रह्म से मिलन है। इसलिए होली की संधिपर्व भी कहा जाता है।
यह समय ऋतु परिवर्तन का समय है। शरीर के कायाकल्प का समय है। गेहुं आदि फसल काटने का समय है। किसानों के घर धनधान्य से भरने का समय है। व्यापारियों के व्यापार का समय है। बच्चों के छुट्टियों का समय है। व्यापारी वर्ग के मार्च अंतिम का समय है। यह पर्व मुख्यतया हिन्दू संस्कृति के लोग मनाते है। कुछ लोग इस पर्व पर अति भी कर लेते हैं। रंग, गुलाल की बजाय कीचड़, केमिकल्स, तेजाब आदि का प्रयोग भी कर लेते हैं। जिससे अनेक लोगों को शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक पीड़ा भी होती है। कुछ लोगों का मंतव्य है कि यह पर्व प्रेम का पर्व है। जैन दर्शन के अनुसार होली का संबंध चातुर्मासिक पक्खी से है। वर्ष में तीन चातुर्मासिक पक्खों आती है। उनमे से एक होली की पक्खी होती है। विशेष रूप से इस दिन धर्म आराधना की जाती है। होली इतिहास के संबंध में हिरण्यकश्यप, पुत्र प्रहलाद व बहिन होलिका की विशेष घटना इस प्रकार आती
राजा हिरण्यकश्यप नास्तिक विचारों का धनी था। वह अपने आप को भगवान मानता था। पूरे राज्य में घोषणा करवा दी गई कि मेरे अलावा किसी भी व्यक्ति विशेष की पूजा नहीं करना । हिरण्यकश्यप का पुत्र पहलाद आस्तिक विचारों का धनी था। वह प्रभु भजन में ही तल्लीन रहता था। वह विष्णु भक्त था। इसलिए अनेक प्रकार के दण्ड दिये गये फिर भी प्रहलाद उन सब दण्डों में से बचता गया। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका पर अग्निदेवता प्रसन्न थे। इसलिए अपने भाई के कहने पर प्रहलाद को भस्म करने की प्रतिज्ञा की। होलिका ने प्रहलाद को अपनी गोदी में बिठाकर अग्निदेवता को प्रार्थना की अग्निदेवता प्रकट हुए। उसमें होलिका भस्म हुई और भक्त प्रहलाद सुरक्षित रहे। इस कहानी का सार है
आसुरी वृत्ति पर देवी शक्ति की विजय असत्य और अधर्म में सत्य और धर्म की विजय।
हमारे भीतर अनेक प्रकार की आसुरी वृत्तियां है। जैसे ईर्ष्या, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष है। यदि हमें सच्ची होली खेलना है तो आज से हम सुसंकल्प ले हम क्षमा, सरलता, प्रेम, सौहार्द का भाव बढायेंगें। अध्यात्मिक रंगो से खेलेगें। आध्यात्मिक रंग, नव शक्ति का संचार करता है। चेतना का ऊर्ध्वारोहण करता है। बस इतना सा ही होली के अवसर पर बुराईयों को जलाकर अच्छाईयों के मार्ग पर अग्रसर हो।