इंदौर शहर के सबसे ख्यात मंदिरों की बात की जाए तो जूनी इंदौर स्थित शनि मंदिर उनमें से एक है। इस शनि मंदिर की जितनी रोचक कहानी है, उतने ही रोचक यहां से जुड़े भक्तों के किस्से भी सुनने को मिलते हैं।
शनिभक्तों के लिए शनिवार का दिन विशेष महत्व का होता है। इसलिए शनिवार को हम आपको ऐसे शनि मंदिर के बारे में बता रहे हैं, जहां शनिदेव स्वयं प्रकट हुए थे। माना जाता है कि जूनी इंदौर स्थित प्रचीन शनि मंदिर में भगवान शनि देव के दर्शन मात्र से प्रकोप दूर होते हैं।
इस मंदिर में भक्तों की बहुत आस्था है, हजारों की संख्या में हर शनिवार को यहां भक्त अपने इष्ट देव के दर्शन करने के लिए पहुंचते हैं। न केवल इंदौर से बल्कि दूर-दराज से के इलाकों से भी यहां भक्त शनिदेव को मत्था टेकने पहुंचते हैं। मंदिर के बारे में यह प्रचलित है कि यहां शनिदेव स्वयं प्रकट हुए थे। यहां पर जो शनिदेव की प्रतिमा स्थापित है, वो स्वयंभू है, इन्हें किसी ने बनाया नहीं है।
अंधे पुजारी को स्वप्न में दर्शन देकर लौटाई थी आंखे
इस मंदिर के बारे में एक कहानी बहुत प्रचलित है, वह हम आज आपको बताने जा रहे हैं। इस कहानी के अनुसार मंदिर के स्थान पर 300 सालों पहले 20 फीट का ऊंचा टीला था। जहां पर वर्तमान पुजारी के पूर्वज गोपालदास तिवारी आकर ठहरे थे। गोपाल दास दृष्टिहीन थे। बावजूद इसके एक दिन शनिदेव ने उन्हें सपने में आकर आदेश दिया कि इस टीले के नीचे मेरी प्रतिमा है, उसे बाहर निकालो।
ऐसा सुनने पर गोपालदास ने कहा प्रभु मैं तो अंधा हूं, मैं देख कैसे सकता हूं। इस बात पर शनिदेव ने उनसे कहा कि आंखें खोलो अब तुम सब देख सकते हो। गोपालदास ने आंखें खोली तो उनका अंधत्व दूर हो चुका था। वे इस दुनिया को देख सकते थे। उनका अंधत्व दूर होने से अन्य लोगों को भी उनकी बातों पर यकीन हो गया। इसके बाद जनसहयोग से उस टीले का खोदकर वह प्रतिमा निकाली गई और आज वह प्रतिमा मंदिर में स्थापित है।
अपने आप ही खिसकी थी मंदिर की प्रतिमा इस मंदिर के बारे में एक और चमत्कार प्रसिद्ध है कि वर्तमान में जहां भगवान राम की प्रतिमा स्थापित है, वहां पहले शनिदेव की प्रतिमा स्थापित किया गया था। लेकिन एक दिन अचानक शनिदेव की प्रतिमा खिसक कर वहां आ गई जहां वर्तमान में स्थापित है। बस तभी से भक्तों में शनिदेव की आज्ञा समझकर उसी स्थान पर उनकी पूजा-अर्चना शुरू कर दी। हर साल यहां शनि अमावस्या के दिन से भव्य कार्यक्रम आयोजित किए जाते है।
साभार पी श्रीवास्तव