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किसानों की अड़ियल रुख ने समाधान के सभी रास्ते बंद किये

कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने स्पष्ट शब्दों में यह बोल दिया है कि अब यदि किसान नेताओं को प्रस्ताव मंजूर हो जाये तो आगे वार्ता के लिए विचार किया जा सकता है। यानी सरकार की तरफ से आगे किसी भी मीटिंग की तारीख तय नहीं की गई है। अब गेंद पूरी तरह से किसानों के पाले में डाल दिया है। अब निर्णय उन्हें लेना है। कृषि कानून और किसान आंदोलन पर जनता को भी उम्मीद थी कि संवाद से इसका समाधान अवश्य निकलेगा। परंतु ऐसा नहीं हो सका। किसान आंदोलन पर वार्ता का अंत इस प्रकार होगा, किसान नेताओं ने सोंचा भी नहीं होगा।

विनय श्रीवास्तव (स्वतंत्र पत्रकार)

एक तरफ गणतंत्र दिवस है, तो दूसरी तरफ किसान आंदोलन।आशा थी संवाद से समाधान की। 58 दिनों से चल रहा है किसान आंदोलन। सरकार और किसान नेताओं के बीच बारह दौर की बात चली, लेकिन अफसोस कि किसानों के अड़ियल रुख से बारहवें दिन की वार्ता बारह मिनट में ही सिमट गई। सरकार के इस बयान के साथ कि सरकार समाधान के सभी संभव प्रस्ताव दे चुकी है। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने स्पष्ट शब्दों में यह बोल दिया है कि अब यदि किसान नेताओं को प्रस्ताव मंजूर हो जाये तो आगे वार्ता के लिए विचार किया जा सकता है। यानी सरकार की तरफ से आगे किसी भी मीटिंग की तारीख तय नहीं की गई है। अब गेंद पूरी तरह से किसानों के पाले में डाल दिया है। अब निर्णय उन्हें लेना है। कृषि कानून और किसान आंदोलन पर जनता को भी उम्मीद थी कि संवाद से इसका समाधान अवश्य निकलेगा। परंतु ऐसा नहीं हो सका। किसान आंदोलन पर वार्ता का अंत इस प्रकार होगा, किसान नेताओं ने सोंचा भी नहीं होगा। यानी सरकार की तरफ से मान-मनउवल का रास्ता बंद हो चुका है। अब जबकि संवाद से समाधान नहीं निकल सका तो अब क्या होगा ? क्या किसान अपने आंदोलन को और तेज करेंगे ? या फिर किसानों के तरफ से अब नरम रुख अख्तियार किया जायेगा ? और इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि आखिर सरकार और किसान नेताओं के बीच कोई हल क्यों नहीं निकल सका ? इसका सीधा जवाब है। किसान नेताओं का अड़ियल रुख का अख्तियार करना।
केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट तक के प्रस्ताव को सिरे से खारिज करना किसानों के अड़ियल रुख को दर्शाता है। किसान नेता एक भी कदम पीछे हटने के लिए तैयार नहीं हैं। जबकि स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसानों से सीधे संवाद में भी यह साफ कर चुके हैं कि नए कृषि कानून से किसानों को कोई नुकसान नहीं है। वे एमएसपी यानी मिनिमम सपोर्ट प्राइस का मौजूदा व्यवस्था जारी रखने पर लिखित में भरोसा देने पर राजी है। सरकार ने यह भी कहा कि वह एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी यानी एपीएमसी के तहत बनी मंडियों को बचाने के लिए कानून में भी बदलाव करेगी।
सरकार के तरफ से डेढ़ साल तक कृषि कानून को स्थगित करने की अंतिम मगर बहुत ही सुंदर प्रस्ताव भी रखा गया। लेकिन इन्होंने इस प्रस्ताव को भी सिरे से खारिज कर दिया। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के प्रस्ताव को भी किसानों ने मानने से साफ साफ इंकार कर दिया। ये लोग गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में ट्रैक्टर रैली निकालने पर भी अड़े हुए हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। किसानों की मांग और आंदोलन अपनी जगह है। देश की गणतंत्र दिवस अपनी जगह है। गणतंत्र दिवस का पर्व सभी नागरिकों के लिए गौरव पर्व है। इसकी आन बान और शान की परावह करना एक एक भारतीय का कर्तव्य है। यदि किसान आंदोलन से कोई भी अप्रिय घटना घटित होती है तो यह पूरी दुनिया में सभी भारतीयों के लिए शर्म की बात होगी।

वैसे भी हमारी इनटेलीजेंस एजेंसियां बार बार आगाह कर रही हैं कि आंदोलन की आड़ में देश में अशांति फैलाने की कोशिश उपद्रवियों और देशद्रोही ताकतों के द्वारा की जा रही है। किसानों का अड़ियल तेवर ना उनके हित में है और ना ही देश के हित में है। आंदोलन कर रहे किसान नेता भी जानते हैं कि यह आंदोलन पूर्ण रूप से राजनीतिक रूप ले चुका है। आंदोलन के नाम पर जगह जगह तोड़ फोड़ और गुंडागर्दी चल रही है। कहीं टॉल टैक्स के लिए मारपीट हो रही है तो कहीं खालिस्तान के नाम पर दंगा भड़काने की कोशिश की जा रही है। और यकीन जानिए कि इसी कृषि कानून पर अधिकतर राज्यों के किसान खुश और संतुष्ट हैं। सिंधु बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन के ठीक विपरीत स्थिति बिहार और यूपी के ग्रमीण किसानों की है। यहां के किसानों को नए कृषि कानून से कोई शिकवा शिकायत नहीं है। अलबत्ता उन्हें इस बात की खुशी है कि नया कृषि कानून आने के बाद वे अपने उपज को बेचने के लिए पहले से अधिक स्वतंत्र और मजबूत होंगे। किसान आंदोलनकारियों को अपने गणतंत्र दिवस की सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद लेनी चाहिए। आंदोलन समाप्त कर खुले मन से सरकार के प्रस्तावों पर विचार करना चाहिए। समाधान के लिए यदि सरकार कुछ कदम हटने के लिए तैयार है तो किसानों को भी कुछ कदम पीछे हट कर समाधान निकालना चाहिए।

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