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आरएसएस के 100 वर्ष: विवाद, विरासत और ‘नेशन फर्स्ट’ की कसौटी”

नई दिल्ली ,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूरे कर चुका है। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शताब्दी कार्यक्रम में भाग लेते हुए देश के सामने खड़ी जनसांख्यिकीय चुनौतियों का उल्लेख किया और संघ की अनुशासन, सेवा और राष्ट्र-निर्माण की लंबी यात्रा को सराहा। आरएसएस को लेकर दशकों से जो बहस चल रही है—उसकी विचारधारा, भूमिका और लोकतांत्रिक भारत में उसकी प्रासंगिकता—वह आज भी उतनी ही तीव्र है। आलोचक संघ को ‘हिंदू राष्ट्र’ की विचारधारा से जोड़ते हैं, जबकि समर्थक इसे “नेशन फर्स्ट” की जीवंत प्रयोगशाला बताते हैं।

स्थापना से विस्तार तक

27 सितंबर 1925 को नागपुर में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने आरएसएस की नींव रखी थी। उद्देश्य स्पष्ट था—भारतीय समाज में सांस्कृतिक चेतना, अनुशासन और राष्ट्रीय कर्तव्य-बोध जगाना। महज़ 17 स्वयंसेवकों से शुरू हुआ यह संगठन आज 83,000 से अधिक शाखाओं (शाखाओं) का विराट नेटवर्क खड़ा कर चुका है। यह विस्तार अपने आप में दर्शाता है कि संघ की संगठनात्मक क्षमता और कार्य-पद्धति कितनी मजबूत रही है।

संघ का मूल सिद्धांत रहा है—नेशन फर्स्ट यानी “राष्ट्र सर्वोपरि।” सवाल यह है कि क्या इस सिद्धांत को केवल हिंदू राष्ट्र की संकीर्ण व्याख्या से जोड़ देना उचित है? या फिर इसे व्यापक राष्ट्रवाद और नागरिक अनुशासन की धारा में समझा जाना चाहिए?

स्वतंत्रता आंदोलन का सवाल

संघ के खिलाफ सबसे बड़ा आरोप रहा है कि उसने स्वतंत्रता संग्राम में कोई भूमिका नहीं निभाई। यह बात आंशिक रूप से सच है, क्योंकि आरएसएस ने प्रत्यक्ष राजनीतिक आंदोलनों में भाग नहीं लिया। परंतु इसे मात्र अनुपस्थित दर्शाना भी सही नहीं है। हेडगेवार स्वयं कांग्रेस से जुड़े थे और आंदोलनकारी पृष्ठभूमि रखते थे। संघ का दृष्टिकोण था कि राजनीतिक लड़ाई से ज्यादा जरूरी है ऐसे चरित्रवान नागरिकों का निर्माण, जो भविष्य में राष्ट्र को स्थिरता और दिशा दे सकें।

यह दृष्टिकोण अलग जरूर था, लेकिन गलत कहना एकतरफा होगा। स्वतंत्रता आंदोलन से दूरी संघ की सबसे बड़ी आलोचना बनी, जबकि दूसरी ओर स्वतंत्रता के बाद के भारत में उसकी कार्यशैली ने सामाजिक सेवा और राष्ट्रभक्ति का मजबूत परिचय दिया।

सेवा और आपदा प्रबंधन में भूमिका

आरएसएस की एक अनदेखी ताकत उसकी सेवा-परंपरा है। चाहे 2001 का गुजरात भूकंप हो, 2013 की केदारनाथ त्रासदी, या कोविड-19 महामारी—हर संकट में स्वयंसेवक राहत और सेवा कार्यों में सक्रिय रहे। संघ के अनुशासनबद्ध कार्यकर्ता बिना प्रचार-प्रसार के राहत कैंप चलाते हैं, शव उठाते हैं और पुनर्वास कार्य करते हैं। यही कारण है कि उसके समर्थक कहते हैं कि आपदा प्रबंधन और सामाजिक सेवा में संघ का योगदान निर्विवाद है।

कट्टरपंथ से तुलना क्यों अनुचित?

अक्सर आलोचक आरएसएस की तुलना कट्टर इस्लामी संगठनों से करते हैं। यह तुलना वास्तविकता से परे है। कट्टर इस्लामी संगठन हिंसा, आतंक और बहिष्करण पर टिके होते हैं। आरएसएस का दर्शन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित है, जो हिंसा का समर्थन नहीं करता। हां, उसके विचार कई बार विवादित जरूर होते हैं, लेकिन इसे उग्रवादी संगठनों की श्रेणी में रखना अतिशयोक्ति होगी।

संघ का जोर संगठन, अनुशासन और सांस्कृतिक गौरव पर है। इसके स्वयंसेवक ‘शाखा’ में व्यायाम, खेल, परंपरागत मूल्य और सेवा-भाव सीखते हैं। आलोचक इसे ब्रेनवॉश कहते हैं, लेकिन समर्थक इसे राष्ट्रभक्ति की पाठशाला मानते हैं।

हिंदू राष्ट्रबनामनेशन फर्स्ट

संघ का सबसे विवादित पहलू रहा है “हिंदू राष्ट्र” की अवधारणा। विरोधियों का मानना है कि इससे अल्पसंख्यकों का स्थान गौण हो जाता है। लेकिन हाल के वर्षों में संघ ने अपने सार्वजनिक विमर्श में “समावेशिता” पर अधिक जोर दिया है। सरसंघचालक मोहन भागवत बार-बार कहते रहे हैं कि भारत के विकास और निर्माण में मुसलमानों की भूमिका उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी किसी और की।

भागवत का यह स्वीकार करना कि मुसलमान भारत की प्रगति में आवश्यक भागीदार हैं, इस बात का संकेत है कि संघ की राष्ट्रवाद की अवधारणा अब केवल एक धार्मिक पहचान तक सीमित नहीं रहना चाहती। हालांकि आलोचकों का कहना है कि यह भाषण और व्यवहार के बीच का अंतर खत्म करना संघ के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।

विवाद और राजनीति

आरएसएस की छवि राजनीति से अलग होकर नहीं देखी जा सकती। भाजपा, जो आज देश की सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति है, संघ की वैचारिक भूमि से पोषित हुई है। आलोचकों का तर्क है कि संघ की पकड़ भारतीय राजनीति पर असमान रूप से अधिक है, जिससे लोकतांत्रिक संतुलन प्रभावित होता है। वहीं समर्थक मानते हैं कि यह पकड़ संघ के “अनुशासन और संगठन कौशल” की वजह से है, न कि किसी थोपे गए वर्चस्व के कारण।

100 वर्षों बाद की चुनौतियाँ

आज जब आरएसएस अपनी शताब्दी मना रहा है, तब वह एक चौराहे पर खड़ा है।

  • एक ओर उसके सामने अतीत के आरोप, बहुसंख्यकवाद की आशंका और वैचारिक आलोचनाएँ हैं।
  • दूसरी ओर, उसके पास अवसर है कि वह अपनी “नेशन फर्स्ट” की विचारधारा को व्यवहार में साबित करे और समावेशिता को अपने कार्य का केंद्र बनाए।

अगर संघ यह संतुलन साध लेता है—सांस्कृतिक गौरव को सामाजिक सौहार्द्र के साथ जोड़कर—तो उसकी अगली सदी विवादों की जगह रचनात्मक राष्ट्र-निर्माण की सदी हो सकती है।

लोकतंत्र और संघ का भविष्य

भारत का लोकतंत्र बहस, असहमति और संवाद पर टिका है। संघ इस बहस का अहम हिस्सा है। इसे न तो पूरी तरह नकारा जा सकता है, न ही बिना आलोचना के स्वीकार किया जा सकता है। उसकी ताकत अनुशासन और संगठन में है, जबकि उसकी चुनौती है समावेशिता और विविधता को व्यवहार में उतारना।

आरएसएस के 100 वर्ष का संदेश यही है कि किसी संगठन का मूल्यांकन केवल उसके अतीत की आलोचनाओं से नहीं, बल्कि उसकी वर्तमान भूमिका और भविष्य की दिशा से भी होना चाहिए। यदि संघ सचमुच “नेशन फर्स्ट” को अपना आधार बनाए और सभी समुदायों को राष्ट्र-निर्माण का समान भागीदार माने, तो उसकी अगली सदी भारत के लोकतंत्र को और अधिक मजबूत कर सकती है।

 

 

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