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भारतीय लोकतंत्र आयातित नहीं, बल्कि हमारी परंपराओं और महाकाव्यों में निहित है : हरिवंश

नई दिल्ली। राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश ने रविवार को कहा कि भारतीय लोकतंत्र किसी अन्य देश से आयातित नहीं, बल्कि हमारी परंपराओं, महाकाव्यों और दार्शनिक विचारधारा में निहित है, जहां सदा धर्म और नैतिकता ने सत्ता का मार्गदर्शन किया। उन्होंने इन शब्दों के साथ आज ऑल इंडिया स्पीकर्स कॉन्फ्रेंस के द्वितीय सत्र को संबोधित किया। सत्र का विषय “भारत – मदर ऑफ डेमोक्रेसी” था, जो केंद्रीय विधानसभा के प्रथम भारतीय अध्यक्ष विट्ठलभाई पटेल के 1925 के निर्वाचन की शताब्दी के उपलक्ष्य में आयोजित किया गया। इस अवसर पर दिल्ली विधानसभा के अध्यक्ष विजेंद्र गुप्ता और उपाध्यक्ष मोहन सिंह बिष्ट भी उपस्थित रहे।
हरिवंश ने कहा कि भारत की लोकतांत्रिक परंपरा हजारों वर्षों पुरानी है। उन्होंने उल्लेख किया कि ऋग्वेद से ही सभा और समिति जैसी सामूहिक विमर्श की संस्थाओं का उल्लेख मिलता है। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में नेतृत्व का संबंध त्याग, नैतिकता और प्रजाजन के प्रति जिम्मेदारी से जोड़ा गया है। उन्होंने कहा कि पश्चिमी चिंतकों ने राजनीति को नैतिकता से अलग किया, जबकि भारतीय चिंतन में धर्म और शासन हमेशा साथ रहे। उन्होंने कौटिल्य के अर्थशास्त्र का हवाला देते हुए कहा कि “राजा का सुख प्रजा के सुख में है,” और इसे मैकियावेली के उस विचार से अलग बताया कि शासक के लिए भयभीत करना प्रिय होने से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
उपसभापति ने कहा कि लोकतंत्र केवल ग्रंथों में ही नहीं बल्कि भारत के सामाजिक जीवन और संस्थानों में भी दृष्टिगोचर होता है – ग्राम पंचायतों, बौद्ध संघों, गणराज्यों से लेकर भक्ति और सूफी आंदोलनों तक। उन्होंने कहा कि गांधीजी स्वयं कहते थे “हम लोकतांत्रिक संस्कृति के लोग हैं” और डॉ. आंबेडकर ने “शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो” का आह्वान कर इसी परंपरा को आगे बढ़ाया। उन्होंने अब्राहम लिंकन के प्रसिद्ध कथन “लोक के लिए, लोक द्वारा, लोक की सरकार” को कौटिल्य के शाश्वत सूत्र से जोड़ा, जिसमें कहा गया है कि राजा का अस्तित्व प्रजा से अलग नहीं है।
उन्होंने कहा कि इस परंपरा का आधुनिक रूप 1925 में तब सामने आया जब विट्ठलभाई पटेल केंद्रीय विधान सभा के पहले भारतीय अध्यक्ष निर्वाचित हुए। इसने न केवल सरकार के उम्मीदवार को पराजित किया बल्कि अध्यक्ष पद की स्वतंत्रता और गरिमा की परंपरा स्थापित की। सिंह ने याद दिलाया कि यह सदन महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल, पं. मोतीलाल नेहरू, महामना मालवीय जैसे नेताओं की आवाजों का साक्षी रहा है, जिनकी वाणी ने रोलेट एक्ट के विरुद्ध संघर्ष से लेकर असहयोग और सविनय अवज्ञा जैसे आंदोलनों को जन्म दिया।
हरिवंश ने कहा कि यह विधानसभा उन महान नेताओं की वाणी से गूंजी है जिन्होंने भारत की नियति गढ़ी। उनके स्वप्न को आगे बढ़ाना केवल हमारी जिम्मेदारी ही नहीं बल्कि हमारा पवित्र कर्तव्य है। उन्होंने आह्वान किया कि भारत जब 2047 की ओर अग्रसर है, तो लोकतंत्र केवल प्रक्रिया या दलगत राजनीति तक सीमित न रहे, बल्कि नैतिकता, जवाबदेही और जनता की सेवा का प्रतीक बना रहे।
इस अवसर पर हरियाणा विधानसभा के उपाध्यक्ष कृष्ण लाल मिड्ढा, केरल विधानसभा के अध्यक्ष एएन शमसीर, छत्तीसगढ़ विधानसभा के अध्यक्ष रमन सिंह, जम्मू-कश्मीर विधानसभा के अध्यक्ष अब्दुल रहीम राथर, महाराष्ट्र विधानसभा के अध्यक्ष राहुल नरेवर, राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष वासुदेव देवानी, महाराष्ट्र विधान परिषद के सभापति राम शिंदे और आंध्र प्रदेश विधानसभा के उपाध्यक्ष केआर रामकृष्णम राजू सहित अनेक गणमान्य अध्यक्षों एवं उपाध्यक्षों ने भी विचार व्यक्त किए। सभी वक्ताओं ने अपने-अपने राज्यों की समृद्ध विधायी परंपराओं का उल्लेख करते हुए लोकतंत्र को और सशक्त बनाने में अध्यक्षों की भूमिका पर मूल्यवान दृष्टिकोण साझा किया।
साभार – हिस

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