
नई दिल्ली। 12 जून 2025 की सुबह एयर इंडिया ड्रीमलाइनर 171 की अहमदाबाद में हुई भयावह दुर्घटना ने एक बार फिर भारत के नागरिक उड्डयन सुरक्षा तंत्र की गहरी खामियों को उजागर कर दिया है। इस भयावह हादसे में 275 से अधिक लोगों की जान चली गई—जिनमें 241 यात्री, 12 क्रू सदस्य और वे नागरिक शामिल हैं जो उस इमारत में मौजूद थे, जिस पर विमान आकर गिरा। यह त्रासदी केवल एक तकनीकी दुर्घटना नहीं, बल्कि एक ऐसा संस्थागत अपराध है जो यह सवाल उठाता है कि क्या भारत का नागरिक उड्डयन क्षेत्र, जिसकी तेजी से बढ़ती वैश्विक उपस्थिति की सराहना की जाती है, दरअसल एक लापरवाही और जोखिम का बारूदखाना बनता जा रहा है?
इस दुर्घटना के बाद देशभर में जो रोष उमड़ा है, वह केवल दुख या शोक का नहीं, बल्कि गुस्से का है—गुस्सा इस बात का कि शायद इस भयावह हादसे को टाला जा सकता था। अब सबसे बड़ा सवाल है—इस विनाशकारी त्रासदी का जिम्मेदार कौन है? क्या एयर इंडिया का शीर्ष प्रबंधन? क्या नागरिक उड्डयन मंत्रालय, जो सुरक्षा मानकों को लागू नहीं कर सका? या फिर वो नियामक एजेंसियाँ जिन्होंने एक दोषपूर्ण विमान को उड़ान भरने की अनुमति दे दी? या ये सभी, एक ऐसे सरकारी जाल में उलझे हैं जहां जिम्मेदारी तय करना किसी की प्राथमिकता नहीं?
यह कोई पहला मौका नहीं है जब भारत ने ऐसा विमान हादसा देखा है। यदि पिछले 25 वर्षों के रिकॉर्ड पर नजर डालें, तो सार्वजनिक और निजी एयरलाइनों के दुर्घटनाओं में 1450 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है। 2000 में पटना की एलायंस एयर दुर्घटना, 2010 में मंगलूरु में एयर इंडिया एक्सप्रेस की रनवे से फिसलन, 2020 में महामारी के दौरान कोझिकोड हादसा—इन सभी घटनाओं में एक ही पैटर्न देखने को मिला: मीडिया में भारी सनसनी, सरकार द्वारा गठित समिति, महीनों बाद आई रिपोर्ट जो “खराब मौसम” या “पायलट की गलती” को जिम्मेदार ठहराती है, और फिर कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती।
लेकिन अहमदाबाद की यह दुर्घटना पैमाने और तीव्रता दोनों में अलग है। विमान के ब्लैक बॉक्स से मिली शुरुआती जानकारी में इंजन में गड़बड़ी के संकेत मिले हैं। दोनों इंजनों में दहन प्रक्रिया में असमानता पाई गई और अंततः वे पूरी तरह फेल हो गए। इससे ईंधन की अशुद्धता, सेंसर में खराबी या FADEC सिस्टम में गड़बड़ी की आशंका गहराई है। कुछ रिपोर्टों के अनुसार इसी विमान ने पिछले हफ्ते उड़ान के दौरान तकनीकी खामी दिखाई थी, फिर भी एक सामान्य निरीक्षण के बाद इसे उड़ान के लिए मंजूरी दे दी गई। यदि यह सच साबित होता है, तो यह एक चूक नहीं, बल्कि जानबूझकर की गई आपराधिक लापरवाही बन जाती है।
और भी गंभीर बात यह है कि लीक हुए मेंटेनेंस लॉग में पता चला है कि हाल ही में इस विमान के इंजनों में अधिक गर्मी के संकेत मिले थे। आंतरिक संचार में तकनीकी टीम ने विमान को अस्थायी रूप से ग्राउंड करने की सिफारिश की थी, लेकिन समय पर उड़ानों को बनाए रखने और परिचालन बैकलॉग कम करने की होड़ में इन चेतावनियों को नजरअंदाज कर दिया गया। अगर यह भारत के उड्डयन तंत्र की हकीकत है, तो “दुर्घटना” शब्द अहमदाबाद में हुई घटना के लिए बहुत ही कमजोर है। यह हत्या थी—शायद जानबूझकर नहीं, लेकिन मानवीय जीवन के प्रति घोर उदासीनता और उपेक्षा के कारण।
यह समय है जब नागरिक उड्डयन महानिदेशालय (DGCA) की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाए जाएं। DGCA की जिम्मेदारी है कि वह विमानों की एयरवर्थिनेस सुनिश्चित करे, नियमित निरीक्षण करे और एयरलाइनों को सुरक्षा उल्लंघन के लिए दंडित करे। लेकिन क्या आप याद कर सकते हैं कि आखिरी बार DGCA ने किसी बड़ी एयरलाइन पर बार-बार तकनीकी गड़बड़ियों के लिए कोई सख्त कार्रवाई की हो? और क्या कहें नागरिक उड्डयन मंत्रालय की, जो नए हवाईअड्डों के उद्घाटन और अंतरराष्ट्रीय विस्तार की खबरों पर तो फूले नहीं समाता, लेकिन जब विमान हादसों में जानें जाती हैं, तब चुप्पी साध लेता है? यह सड़ांध एक अकेली एजेंसी या हादसे से परे, पूरे सिस्टम में फैली हुई लगती है।
यह हादसा ऐसे समय हुआ है जब सरकार आक्रामक तरीके से उड्डयन क्षेत्र में निजीकरण और उदारीकरण को बढ़ावा दे रही है। सिद्धांत रूप में प्रतिस्पर्धा अच्छी होती है, लेकिन जब निजी कंपनियां बिना पर्याप्त निगरानी के बाजार में उतरती हैं, तो जोखिम कई गुना बढ़ जाता है। सस्ती एयरलाइनों द्वारा लागत कम करने के लिए मेंटेनेंस में कटौती, तकनीकी उपकरणों को संभालने के लिए अपर्याप्त रूप से प्रशिक्षित कर्मचारी, और अत्यधिक उड़ान समय से थके हुए पायलट—इन सबने मिलकर एक गंभीर संकट को जन्म दिया है। यहाँ तक कि बड़े हवाईअड्डों पर रनवे की भीड़ और पुराने एयर ट्रैफिक सिस्टम के कारण कई ‘करीबी हादसे’ हो चुके हैं जो सुर्खियों में नहीं आते। क्या भारत इस हवाई यातायात के विस्फोट के लिए तैयार है या हम महज आर्थिक विकास की आड़ में जानें दांव पर लगा रहे हैं?
इस समूचे संकट के बीच एक और अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा है—जांच प्रक्रिया की विश्वसनीयता। परंपरागत रूप से भारत में विमान हादसों की जांच सरकार द्वारा नियुक्त समितियों द्वारा की जाती है। इनमें अक्सर नौकरशाह, एयरलाइन प्रतिनिधि और मंत्रालय के अधिकारी होते हैं—यानी वे लोग जिन्हें सिस्टम को बचाना है। ये जांच कभी पूरी तरह स्वतंत्र नहीं होतीं और शायद ही कभी इनमें आपराधिक मुकदमे या शीर्ष स्तर पर इस्तीफे होते हैं। यही वजह है कि अब देशभर से यह मांग उठ रही है कि अहमदाबाद हादसे की न्यायिक जांच हो, सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में, और अंतरराष्ट्रीय विमानन सुरक्षा विशेषज्ञों की मदद से। केवल ऐसी पारदर्शी और स्वतंत्र जांच से ही सच्चाई सामने आएगी और जिम्मेदारी तय की जा सकेगी।
इस पूरे घटनाक्रम में सबसे अधिक मार्मिक पहलू है उन युवाओं की मौत, जो डॉक्टर, इंजीनियर, कलाकार बनने का सपना लेकर विमान में सवार हुए थे। कोई चेतावनी की अनदेखी कर बैठा, किसी ने मरम्मत में देर की, और उनकी जिंदगी खत्म हो गई।
अब वक्त आ गया है जब भारत को एक स्वतंत्र विमानन सुरक्षा बोर्ड की स्थापना करनी चाहिए, जिसे पूर्ण कानूनी अधिकार हों कि वह निगरानी करे, अचानक ऑडिट करे, सुरक्षा रेटिंग जारी करे और राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त होकर जांच करे। विमान रखरखाव का ऑडिट एयरलाइन के अपने इंजीनियरों द्वारा नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्वतंत्र एजेंसियों द्वारा होना चाहिए। पायलटों, इंजीनियरों और ग्राउंड स्टाफ को आपात स्थितियों से निपटने की वास्तविक तैयारी के साथ प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। और सबसे महत्वपूर्ण—तकनीकी चूक की जानकारी देने वाले व्हिसलब्लोअरों को कानूनी संरक्षण मिलना चाहिए, ताकि सच्चाई चुप्पी में न दबे।
सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि हर एयरलाइन की सुरक्षा रेटिंग, निरीक्षण रिपोर्ट और शिकायतों का निवारण सार्वजनिक पोर्टल पर उपलब्ध हो। यात्रियों को यह जानने का अधिकार है कि जिस विमान में वे चढ़ रहे हैं, वह अतीत में कितनी बार लाल झंडी दिखा चुका है।
अहमदाबाद हादसा सिर्फ एक त्रासदी नहीं, बल्कि एक भयानक चेतावनी है—उस भारत के लिए जो खुद को वैश्विक विमानन हब बनते देखना चाहता है, लेकिन सुरक्षा के मामले में आंखें मूंदे हुए है। सच्चाई यह है कि भारत का नागरिक उड्डयन क्षेत्र नौकरशाही की निष्क्रियता, कॉर्पोरेट लालच और नियामक विफलता का खतरनाक संगम बन गया है। जब तक हम इन हादसों को “दुर्भाग्य” कहकर टालते रहेंगे, तब तक तकनीकी खामी के नाम पर लोगों की जान जाती रहेगी।
अब समय आ गया है काम का, न कि केवल बयानों का। सरकार को संस्थानों को बचाने की प्रवृत्ति छोड़कर उन नागरिकों को सुरक्षा देनी चाहिए जिन्होंने अपनी जान व्यवस्था के भरोसे छोड़ी थी। अगर कार्यपालिका चूकती है, तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना चाहिए। और जनता को तब तक सवाल पूछते रहना चाहिए जब तक असहज सच्चाई बाहर न आ जाए।
अहमदाबाद में बहे खून को व्यर्थ न जाने दें। यह हादसा एक नए युग की शुरुआत हो—जहां जवाबदेही हो, पारदर्शिता हो, और सबसे बढ़कर मानवीय गरिमा की रक्षा हो।