Home / National / मोदी के सामने अब आंतरिक मोर्चे पर कड़े फैसलों की चुनौती

मोदी के सामने अब आंतरिक मोर्चे पर कड़े फैसलों की चुनौती

  • आर्थिक मोर्चे पर मजबूत होते भारत में अब न्यायिक सुधारों की दरकार

  •  विकास के साथ आंतरिक सफाई की जरूरत

हेमंत कुमार तिवारी, भुवनेश्वर।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते दशक में कई ऐतिहासिक सुधार किए, जिनमें बुनियादी ढांचे, डिजिटल सेवाओं, वित्तीय समावेशन और वैश्विक स्तर पर भारत की साख को मजबूत करना शामिल रहा। लेकिन अब देश के आंतरिक मोर्चे — विशेष रूप से राजस्व विभाग की रिश्वतखोरी, निचली अदालतों की कार्यप्रणाली, और पुलिस के बर्ताव — में निर्णायक सुधार की ज़रूरत स्पष्ट हो गई है।

निचली अदालतें: न्याय नहीं, प्रतीक्षा का पर्याय

देश की निचली अदालतों में करोड़ों मुकदमे वर्षों से लंबित हैं। इसमें बड़ा हिस्सा भूमि विवादों, पारिवारिक मामलों, छोटे-मोटे आपराधिक मामलों और राजस्व विवादों का है। आम जनता को बार-बार तारीखें मिलती हैं, वकीलों और बाबुओं का चक्कर लगाना पड़ता है, और न्याय मिलते-मिलते पीढ़ियां गुजर जाती हैं।

सबसे चिंताजनक बात यह है कि कई बार न्यायिक प्रक्रिया में देरी और रिश्वतखोरी का मेल हो जाता है। कुछ रिपोर्टों में यह बात सामने आई है कि अदालतों के स्टाफ, पेशकार और यहां तक कि कुछ न्यायाधीश भी मामलों को लंबित रखने या मनचाहा फैसला देने के लिए ‘लेन-देन’ करते हैं।

🏛️ निचली अदालतें: जहां सबसे पहले न्याय की उम्मीद की जाती है

  1. देश में निचली अदालतें ही न्याय प्रक्रिया की नींव हैं, लेकिन वहीं से सबसे ज़्यादा शिकायतें सामने आती हैं। पक्षपात, देरी, भ्रष्टाचार और फैसलों में भारी विसंगतियां — ये सब आज आम हो चुके हैं। ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जहां: निचली अदालतों के फैसले ऊपरी अदालतों में पलट जाते हैं।

सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट बार-बार ऐसी टिप्पणियाँ करते हैं कि “ट्रायल कोर्ट ने सबूतों की अनदेखी की” या “मूलभूत न्याय सिद्धांतों की अवहेलना की गई है”।

फैसलों में पलटाव: न्याय में देरी या प्रणाली की कमजोरी?

कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि एक ही जज अपने द्वारा दिए गए पूर्ववर्ती फैसले को कुछ समय बाद पलट देते हैं। इन दोनों फैसलों के बीच का अंतराल पीड़ित पक्ष के लिए मानसिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से अत्यंत नुकसानदायक होता है। यह स्थिति दर्शाती है कि प्रारंभिक निर्णय या तो न्यायिक गंभीरता की कमी का परिणाम था, या फिर उस समय किसी प्रकार के दबाव या भ्रष्टाचार के प्रभाव में लिया गया था। ऐसे मामलों को लेकर न्यायिक कर्मियों के बीच दबी जुबान में चर्चा होती है, लेकिन भ्रष्टाचार के डर और प्रणालीगत सीमाओं के कारण वे खुलकर कुछ कह नहीं पाते। इससे न्यायिक व्यवस्था की पारदर्शिता और विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगते हैं।

जजों की फौरी समीक्षा और रेटिंग सिस्टम

जिन निचली अदालतों के एक से अधिक फैसले ऊपरी अदालत में खारिज हो जाते हैं, वहां न्यायाधीशों की जवाबदेही तय होनी चाहिए। इसके लिए एक न्यायिक रेटिंग प्रणाली लागू की जानी चाहिए, जिसमें हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट निचली अदालत के निर्णय पर टिप्पणी के साथ जज की “निष्पक्षता रेटिंग” दर्ज करें।

ऐसे जजों को न्यायिक सेवा से हटाने या प्रशिक्षण में भेजने की व्यवस्था की जानी चाहिए

राजस्व विभाग: देश की जड़ों में फैली रिश्वतखोरी

भारत में राजस्व विभाग, विशेष रूप से जमीन और संपत्ति से जुड़े मामलों में भ्रष्टाचार चरम पर है।

पटवारी, तहसीलदार से लेकर अपर जिलाधिकारी तक की पूरी श्रृंखला पर रिश्वत लेने के आरोप आम हैं।

नामांतरण, दाखिल-खारिज, मुआवजा जैसे छोटे मामलों में भी आम नागरिक को वर्षों भटकना पड़ता है।

इसी विभाग से जुड़े अधिकतर मुकदमे निचली अदालतों में फंसे रहते हैं। कई मामलों में देखने को मिला है कि रिश्वतखोरी के कारण रिकॉर्ड रूम के रिकॉर्ड भी फाड़ कर फेंक दिए जाते हैं या जला दिए जाते हैं।

राजस्व विभाग का नाम आते ही आम नागरिक के मन में एक ही छवि बनती है — ‘बिना पैसे दिए कोई काम नहीं होता’। चाहे वह जमीन का दाखिल-खारिज हो, नक्शा मंजूरी, भू-राजस्व निर्धारण या फिर रजिस्ट्रेशन से जुड़े दस्तावेज, हर स्तर पर ‘कट मनी’ और बिचौलियों का बोलबाला है।

ग्रामीण क्षेत्रों में तो स्थिति और भी गंभीर है, जहां ज़मीन विवादों का निपटारा वर्षों तक नहीं होता क्योंकि राजस्व अधिकारी या तो अनुपस्थित रहते हैं या फिर जानबूझकर मामले को लटकाते हैं ताकि रिश्वत की गुंजाइश बनी रहे। कई मामलों में भू-माफिया और अधिकारी मिलकर छोटे किसानों की ज़मीनें हड़प लेते हैं। अगर प्रधानमंत्री इस व्यवस्था को पारदर्शी और डिजिटल प्रक्रिया के तहत लाएं, तो करोड़ों लोग राहत की सांस ले सकेंगे।

डिजिटल ट्रैकिंग प्रणाली की जरूरत

ऐसे मामलों की निगरानी के लिए एक सार्वजनिक डिजिटल ट्रैकिंग प्रणाली की जरूरत है जहां पर लोग अपनी शिकायत पर सही कार्रवाई नहीं किए जाने पर रेटिंग दे सकें और इस रेटिंग की जांच के लिए एक विशेष टीम की भी जरूरत होगी, जो यह जांच सके कि वास्तव में संबंधित अधिकारी ने शिकायतकर्ता के मामले पर सही निर्णय लिया है या नहीं। यदि संबंधित अधिकारी ने सही निर्णय नहीं लिया है तो ऐसे अधिकारियों के खिलाफ कठोर दंड का प्रावधान तथा नौकरी से निष्कासन सुनिश्चित किया जाना चाहिए। साथ ही ऐसे अधिकारियों को ब्लैक लिस्ट घोषित कर देने की जरूरत है ताकि वह कहीं भी निर्णायक जिम्मेदारियां पर आवेदन न कर सकें और ऐसे ब्लैक लिस्ट अधिकारियों की ट्रैकिंग के लिए भी एक ट्रैकिंग सिस्टम होनी चाहिए।

पुलिस शब्द को बदलने की जरूरत

थानों में शिकायत दर्ज कराने से लेकर चार्जशीट दाखिल करने तक का पूरा ढांचा आम आदमी के लिए भयावह हो चुका है।

मुकदमों की जांच में लापरवाही, शिकायतों की अनदेखी, और सत्ताधारी पक्ष को संरक्षण देने के आरोप लगातार लगते रहते हैं।

पुलिस अधिकारियों की भी जवाबदेही तय करने और जनसुनवाई की व्यवस्था की दरकार है, लेकिन इससे पहले सबसे जरूरी है कि पुलिस शब्द का नाम बदल दिया जाए, क्योंकि यह शब्द विश्वास के दायरे में नहीं रहा। कई मामलों में जनप्रतिनिधि भी इनकी जांच पर भरोसा नहीं करते और यहां तक कि न्यायिक प्रक्रिया में भी इनके रिपोर्ट को कोई खासा तवज्जो नहीं मिलती है। साथ ही इनके द्वारा दर्ज किए गए बयान भी मान्य नहीं होते हैं।  इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अब सिर्फ अविश्वास का प्रतीक शब्द बनाकर पुलिस रह गया है।  ऐसी स्थिति में पुलिसगिरी को भी अर्धसैनिक बलों या सेना के साथ जोड़ने की जरूरत है,  जहां देशभक्ति और जिम्मेदारियां के साथ आंतरिक मोर्चे पर भी सुरक्षा का काम और जांच की जा सके।

लंबित मामलों की भयावह स्थिति: न्याय प्रक्रिया खुद फंसी

देश में करीब 5 करोड़ से अधिक मामले अदालतों में लंबित हैं। इसका असर न्याय मिलने की प्रक्रिया पर पड़ रहा है:

🧾 न्यायालयवार लंबित मुकदमे (2025 तक)

न्यायालय लंबित मामले

  • सुप्रीम कोर्ट में 80,000+
  • सभी हाई कोर्ट में 60 लाख+
  • निचली अदालतें में 4.5 करोड़+

राज्यवार लंबित मामलों की स्थिति (उच्च न्यायालय)

राज्य कुल लंबित मामले

उत्तर प्रदेश – 9,33,000+
महाराष्ट्र – 1,04,000+
तमिलनाडु – 1,02,000+
कर्नाटक – 2,70,000+
ओडिशा – 1,70,000+
आंध्र प्रदेश – 64,000+
पश्चिम बंगाल – 71,260+

निष्कर्ष: अब वक्त है कठोर फैसलों का

प्रधानमंत्री मोदी ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत को मज़बूत किया, लेकिन अब देश की आंतरिक व्यवस्था को दुरुस्त करने की बारी है। यदि:

  • न्यायपालिका की जवाबदेही तय होती है।
  • राजस्व और पुलिस में पारदर्शिता आती है।
  • निचली अदालतों में त्वरित और निष्पक्ष न्याय की गारंटी होती है।

देश की आधी आबादी को मिलेगा सुकून

अगर न्यायिक प्रक्रिया को नए सिरे से सुसज्जित किया जाए तो लंबित मामलों के निष्पादन से देश के कुल आबादी का लगभग 50 फ़ीसदी लोगों को सुकून मिलेगा इसका दर्द सिर्फ वही परिवार समझ सकता है जो मुकदमे बर तले दबे हुए हैं मुकदमे की तारीख पर तारीख ऐसे लोगों की जिंदगी से खुशियां छीन लेती है।

Disclaimer:

यह लेख सार्वजनिक स्रोतों एवं न्यायिक रिपोर्टों पर आधारित है। आंकड़े समयानुसार बदल सकते हैं। इसका उद्देश्य जनहित में जानकारी देना है, न कि किसी संस्था या व्यक्ति को आरोपित करना। किसी भी विधिक कार्रवाई हेतु आधिकारिक स्रोतों से पुष्टि आवश्यक है।

Share this news

About admin

Check Also

देशभर में अगले 5 दिनों में भारी बारिश की चेतावनी

नई दिल्ली। भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने 24 से 28 जून तक के लिए …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *