Sat. Apr 19th, 2025
SUPREM COURT

अगर बहुमत से पारित कानून पहले सही था, तो अब बहुमत से किया गया संशोधन गैरकानूनी कैसे हो सकता है? सुप्रीम कोर्ट को अब न केवल वर्तमान संशोधन, बल्कि पिछले सभी संशोधनों और उनके प्रभावों की भी समीक्षा करनी चाहिए ताकि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा हो सके।

हेमन्त कुमार तिवारी, भुवनेश्वर।

हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा वक्फ अधिनियम में संशोधन को लेकर उठाए गए सवालों ने एक नई बहस को जन्म दिया है। अदालत ने वक्फ अधिनियम में संशोधन पर आपत्ति जताई है। सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ (संशोधन) कानून, 2025 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर गुरुवार को सुनवाई की। इससे पहले बुधवार को भी इस मामले की सुनवाई हुई थी। मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने केंद्र सरकार से ‘वक्फ बाय यूजर’ के प्रावधान पर सात दिन के भीतर जवाब मांगा है।

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि फिलहाल वक्फ संशोधन कानून पर कोई रोक नहीं लगाई गई है, लेकिन ‘वक्फ बाय यूजर’ के तहत किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जाएगा। साथ ही वक्फ बोर्ड में नई नियुक्तियों पर भी रोक जारी रहेगी। याचिकाकर्ता केंद्र के जवाब पर पांच दिन के भीतर अपनी प्रतिक्रिया दाखिल कर सकते हैं, जिसके बाद अदालत इस मामले को अंतरिम आदेश के लिए सूचीबद्ध करेगी। अगली सुनवाई 5 मई को निर्धारित की गई है।

सुप्रीम कोर्ट का यह रुख एक ऐसे समय पर सामने आया है जब वर्षों तक वक्फ अधिनियम के तहत अदालतों के अधिकार सीमित रहे और हजारों की संख्या में लोगों की निजी संपत्तियों पर ‘वक्फ संपत्ति’ का ठप्पा लगाकर उन्हें कानूनी लड़ाई से वंचित कर दिया गया था और उसे अब अदालत के दरवाजे तक ले जाने का हक प्रदान किया गया है।

यह सवाल उठाना स्वाभाविक है कि जब पहले संशोधन के जरिए अदालतों के दरवाजे बंद कर दिए गए थे, तब न्यायपालिका चुप क्यों रही? क्या अब अदालत इस गलती को सुधारना चाहती है, या यह रुख केवल हालिया संशोधन के खिलाफ है? यह दोहरापन न्याय व्यवस्था की निष्पक्षता पर भी सवाल खड़ा करता है। अगर बहुमत से पारित कानून पहले सही था, तो अब बहुमत से किया गया संशोधन गैरकानूनी कैसे हो सकता है? सुप्रीम कोर्ट को अब न केवल वर्तमान संशोधन, बल्कि पिछले सभी संशोधनों और उनके प्रभावों की भी समीक्षा करनी चाहिए ताकि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा हो सके।

वक्फ संशोधन पर बड़ा सवाल – दोहरे मापदंड क्यों?

इन दिनों यह कहा जा रहा है कि वक्फ अधिनियम में किया गया हालिया संशोधन गैरकानूनी है। लेकिन सवाल यह है कि:

1. अगर यह संशोधन गैरकानूनी है, तो पहले किया गया संशोधन कैसे कानूनी था?
पहले के संशोधन ने अदालतों के अधिकार तक को सीमित कर दिया था। न्यायिक समीक्षा का मार्ग बंद कर दिया गया था। क्या वह संविधानसम्मत था?

2. जब पहले संशोधन को बहुमत के आधार पर वैध माना गया, तो अब बहुमत से किया गया संशोधन गैरकानूनी कैसे हो सकता है?
क्या बहुमत का सिद्धांत तब सही था और अब गलत हो गया है?

3. जब संविधान में स्पष्ट प्रावधान है कि संसद बहुमत से संशोधन कर सकती है, तो फिर किसी संशोधन को कानूनी रूप से गलत कैसे ठहराया जा सकता है?
यह संविधान की आत्मा के साथ छल नहीं तो और क्या है?

4. ज़मीनी हकीकत यह है कि राजस्व विभाग और उसके अधीन न्यायालयों के भ्रष्टाचार ने ही अवैध कब्जों को बढ़ावा दिया है।
एक ही जमीन दो-दो, चार-चार बार बिक जाती है, किसी और की जमीन पर कब्जा हो जाता है। लेखपाल और तहसीलदार की मिलीभगत से खारिज-दाखिल का आदेश तक रिश्वत लेकर दिया जाता है।
अगर कोई माननीय न्यायमूर्ति इस सच्चाई का प्रमाण देखना चाहें, तो मेरे पास दस्तावेज़ी साक्ष्य उपलब्ध हैं — मैं खुद पेश करने को तैयार हूं।

5. और सबसे बड़ा सवाल – सुप्रीम कोर्ट इतने वर्षों तक क्यों मौन रहा, जब वक्फ संशोधन के माध्यम से उसके ही दरवाजे बंद कर दिए गए थे?
क्या यह न्यायिक निष्क्रियता की पराकाष्ठा नहीं है?

6. वक्फ बोर्ड एक संवैधानिक संस्था नहीं, बल्कि एक अधिसूचित निकाय है, जिसे कानून के तहत बनाया गया है।
तो फिर इसे संविधान से ऊपर रखने की कोशिश क्यों? क्या कोई भी अधिनियम संसद से बड़ा हो सकता है?

7. वक्फ की संपत्तियों पर किसी समुदाय विशेष का एकाधिकार संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन नहीं है क्या?
जब बाकी धार्मिक और सामाजिक संस्थाएं अपनी संपत्तियों को लेकर अदालतों में चुनौती झेलती हैं, तो वक्फ को छूट क्यों?

8. क्या वक्फ अधिनियम के नाम पर सरकारी भूमि, गांव की सामूहिक जमीन या किसी व्यक्ति की पुश्तैनी संपत्ति को “नोटिस तक दिए बिना” वक्फ घोषित कर देना, संविधान के मूल अधिकारों का हनन नहीं है?

9. क्या यह न्यायोचित है कि एक विशेष कानून के तहत किसी जमीन को “वक्फ संपत्ति” घोषित किया जाए और फिर उसे चुनौती देने का कोई कानूनी उपाय ही न बचे?
यह तो न्यायिक अधिकारों का सीधा अपहरण है।

10. यह भी सोचने की बात है कि आखिर वक्फ बोर्ड की संपत्ति पर केंद्र या राज्य सरकारें ही नियंत्रण क्यों नहीं रख सकतीं, जबकि मंदिरों की संपत्तियों पर वे सीधे हस्तक्षेप करती हैं?
यह दोहरा रवैया क्यों?

सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप असंवैधानिक क्यों है?

सुप्रीम कोर्ट का मौजूदा हस्तक्षेप वक्फ अधिनियम में किए गए संशोधनों को लेकर सवाल खड़े करता है, लेकिन यही न्यायपालिका वर्षों तक चुप रही जब वक्फ अधिनियम, 1995 की धारा 85 के तहत न्यायिक समीक्षा के अधिकार को ही खत्म कर दिया गया था।

धारा 85 स्पष्ट रूप से कहती है:

“कोई भी सिविल कोर्ट वक्फ बोर्ड या वक्फ ट्रिब्यूनल के किसी आदेश या निर्णय पर हस्तक्षेप नहीं करेगा।”

यह प्रावधान संसद द्वारा विधिवत पारित किया गया था, और दशकों तक सुप्रीम कोर्ट ने इसे चुनौती नहीं दी। न ही इसे असंवैधानिक घोषित किया गया, न ही इसकी समीक्षा की गई। जब संसद द्वारा पारित कानून को पहले मान्यता दी गई, और उस समय न्यायपालिका मौन रही, तो अब उसी कानून में संसद द्वारा बहुमत से किए गए संशोधन को अवैध ठहराना एक दोहरे मापदंड (double standards) को दर्शाता है।

संविधानिक ढांचे की अनदेखी

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 245 और 246 संसद को विधायी अधिकार देता है। जब कोई कानून संसद द्वारा विधिवत पारित होता है और वह संविधान की स्पष्ट अवहेलना नहीं करता, तो न्यायपालिका का बार-बार हस्तक्षेप करना विधायी संप्रभुता (Legislative Supremacy) को चुनौती देना है।

सुप्रीम कोर्ट का दायित्व है कि वह असंवैधानिक प्रावधानों की समीक्षा करे, लेकिन जब वही अदालत पहले किए गए संशोधनों को चुपचाप स्वीकार कर चुकी है, तो अब उस पर सवाल उठाना संविधान के सुसंगत न्याय सिद्धांत (Doctrine of Consistency) के विरुद्ध है। न्यायपालिका की विश्वसनीयता और निष्पक्षता का एक आधार यह भी है कि वह अपने पहले के रुख के विरुद्ध बिना वैध कारण के न जाए।

न्यायिक सीमाओं का उल्लंघन

संविधान के अनुच्छेद 50 के अनुसार, कार्यपालिका और न्यायपालिका में पृथक्करण होना चाहिए। जब संसद द्वारा किसी अधिनियम में नीति आधारित संशोधन किया गया है — जैसे वक्फ संपत्तियों से जुड़ी प्रक्रिया, ट्रिब्यूनल की शक्तियां या अदालती हस्तक्षेप को सीमित करना — तो उसमें न्यायपालिका का बार-बार दखल देना नीतिगत मामलों में घुसपैठ माना जा सकता है।

क्या यह हस्तक्षेप देर से आया न्याय नहीं, बल्कि पक्षपात है

सुप्रीम कोर्ट यदि पहले के संशोधनों को सही मान चुका है, तो अब उसी अधिनियम में संशोधन पर प्रश्न खड़े करना न्यायिक असंतुलन है। अगर पहले यह कहा गया कि वक्फ ट्रिब्यूनल ही अंतिम प्राधिकारी होगा, और इसे मान्यता दी गई, तो अब उसमें संसदीय बहुमत से किए गए परिवर्तन को गलत ठहराना संविधान की धारा 245, 246 और विधायी प्रक्रिया का अपमान है। यह न्यायपालिका की पिछली चुप्पी और वर्तमान सक्रियता के बीच स्पष्ट विरोधाभास दर्शाता है, जो खुद न्यायिक नैतिकता के विरुद्ध है।

Disclaimer:
इस लेख/टिप्पणी/पोस्ट में उल्लिखित वक्फ अधिनियम, 1995 की धारा 85 तथा भारतीय संविधान की धाराएँ 32, 50, 245 और 246 का उल्लेख केवल जनसामान्य की जानकारी और विचार-विमर्श के उद्देश्य से किया गया है। यह किसी प्रकार की कानूनी सलाह नहीं है। प्रस्तुत विश्लेषण लेखक की व्यक्तिगत राय पर आधारित है, जिसका उद्देश्य विधायी और न्यायिक प्रक्रियाओं पर चर्चा को प्रोत्साहित करना है।

पाठकों से अनुरोध है कि किसी भी विधिक कार्रवाई या निर्णय के लिए उपयुक्त कानूनी विशेषज्ञ से परामर्श अवश्य लें। न्यायपालिका की गरिमा, संविधान की सर्वोच्चता तथा विधायी संस्थाओं का सम्मान सर्वोपरि है।

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