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SUPREME सुप्रीम कोर्ट व बार काउंसिल तय करें वकीलों की फीस संविधान दिवस और कराहती न्यायिक प्रणाली: कब मिलेगा न्याय को न्याय?

संविधान दिवस और कराहती न्यायिक प्रणाली: कब मिलेगा न्याय को न्याय?

  • नोटों पर टिकती है तहसीलदार से लेकर एसडीएम की नियत और निचली अदालतों में हर स्तर पर भ्रष्टाचार का बोलबाला

  • जमीन की नापी में बिक जाते हैं लेखपाल और कानूनगो

  • क्या धारा-370 हटाने जैसी न्यायिक प्रणाली को मिलेगी कोई संजीवनी

लेखक-हेमन्त कुमार तिवारी

संविधान दिवस हर वर्ष हमें हमारे लोकतंत्र के मूल्यों और न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांतों की याद दिलाता है। लेकिन देश की मौजूदा न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था पर नजर डालें, तो यह सवाल खड़ा होता है कि क्या हमारी न्यायिक प्रणाली वास्तव में संविधान के उद्देश्यों को पूरा कर पा रही है? रिश्वतखोरी, लालफीताशाही, और न्याय में देरी जैसे मुद्दे न्यायिक व्यवस्था को खोखला कर रहे हैं। तहसीलदार से लेकर एसडीएम और निचली अदालतों तक, हर स्तर पर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। इस लेख में हम इन समस्याओं पर चर्चा करेंगे और यह भी समझने की कोशिश करेंगे कि समाधान की दिशा में क्या कदम उठाए जा सकते हैं।

न्यायिक प्रणाली: पैसे का बोलबाला और रिश्वतखोरी का जाल

तहसील कार्यालयों और निचली अदालतों में भ्रष्टाचार का आलम यह है कि फाइलें बिना रिश्वत दिए आगे नहीं बढ़तीं। चपरासी से लेकर पेशकार तक हर किसी की जेब गरम करनी पड़ती है। एसडीएम और तहसीलदार जैसे अधिकारियों पर भी गंभीर आरोप लगते रहे हैं। आम जनता, जो न्याय की आस में तहसील या अदालत पहुंचती है, अक्सर तारीख पर तारीख पाकर निराश हो जाती है।

वकीलों का रवैया भी चिंता का विषय है। मामूली फीस में वकील बहस करने से पीछे हट जाते हैं, और यह आम आदमी के लिए न्याय की राह को और कठिन बना देता है। वहीं, पुलिस की सिविल मामलों में घुसपैठ न्यायिक प्रक्रिया को और भी कमजोर कर रही है।

लचर प्रणाली और न्याय में देरी

निचली अदालतों में लाखों मामले वर्षों तक लंबित रहते हैं। फाइलें केवल तारीखों में उलझी रहती हैं, और न्याय एक अंतहीन प्रतीक्षा बनकर रह जाता है। ऐसा क्यों है कि फाइलों पर निर्णय लेने में इतना समय लगता है? क्या यह सिर्फ प्रशासनिक अयोग्यता का मामला है, या इसके पीछे जानबूझकर खींची गई लालफीताशाही है?

राजस्व विभाग और तहसील कार्यालयों में तो हालात और भी बदतर हैं। यहां फाइलों का निपटारा महीनों, यहां तक कि वर्षों तक नहीं होता। अधिकारियों की जवाबदेही का अभाव इस समस्या को और गंभीर बना देता है।

सुधार की जरूरत: समयबद्ध न्यायिक व्यवस्था

यह समय है कि हमारी न्यायिक और प्रशासनिक प्रणाली को समय-सीमा के दायरे में बांधा जाए।

  1. फाइलों के निपटारे में देरी पर दंड
    तहसीलदार और एसडीएम जैसे अधिकारियों की जवाबदेही तय होनी चाहिए। यदि फाइलें समय पर निपटाई नहीं जातीं, तो संबंधित अधिकारियों पर जुर्माना लगाया जाना चाहिए। इससे न केवल व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी, बल्कि काम की गति भी तेज होगी।
  2. फाइलों की समय-सीमा और ट्रैकिंग सिस्टम
    सभी फाइलों का डिजिटल ट्रैकिंग सिस्टम होना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि कौन-सी फाइल कितने समय से लंबित है और उसे कब तक निपटाना है।
  3. न्यायिक प्रक्रिया में सख्त नियम
    निचली अदालतों में मामलों के निपटारे के लिए समय-सीमा तय की जानी चाहिए। एक मामला वर्षों तक लंबित रहने के बजाय कुछ महीनों में निपटाया जाए, यह सुनिश्चित करना आवश्यक है।
  4. भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर कदम
    तहसील और राजस्व विभागों में रिश्वतखोरी के मामलों की जांच के लिए स्वतंत्र एजेंसी का गठन किया जाना चाहिए। दोषी पाए जाने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।

न्यायिक और प्रशासनिक सुधार की दिशा में कदम

अनुच्छेद 370 को हटाने की तरह, न्यायिक और प्रशासनिक सुधार के लिए भी एक मजबूत इच्छाशक्ति की जरूरत है। एक ऐसी प्रणाली बनानी होगी, जो न केवल पारदर्शी हो, बल्कि समय पर न्याय सुनिश्चित कर सके।

  • तहसीलदार और एसडीएम के कार्यों की समीक्षा
    इनके कार्यों का नियमित अवलोकन होना चाहिए। यदि कोई अधिकारी न्याय में देरी करता है या भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जाता है, तो उसे तुरंत प्रभाव से हटाया जाए।
  • आधुनिक तकनीक का उपयोग
    डिजिटल इंडिया के तहत न्यायिक प्रणाली को भी डिजिटल बनाना होगा। फाइलों का निपटारा और मामलों की सुनवाई डिजिटल प्लेटफॉर्म पर हो सकती है। इससे पारदर्शिता बढ़ेगी और समय की बचत होगी।

न्यायिक प्रणाली के पुनरुत्थान की आवश्यकता

संविधान दिवस हमें यह सोचने का अवसर देता है कि क्या हमारा न्यायिक तंत्र संविधान की भावना के अनुरूप काम कर रहा है। न्यायिक प्रणाली को मजबूत और पारदर्शी बनाना हर नागरिक का अधिकार है। रिश्वतखोरी, लालफीताशाही और न्याय में देरी को समाप्त किए बिना, हम एक सशक्त लोकतंत्र की कल्पना नहीं कर सकते।

आज जरूरत है एक ऐसी क्रांति की, जो हमारी न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था को नए सिरे से गढ़े। एक ऐसी व्यवस्था जो न केवल न्याय दे, बल्कि यह सुनिश्चित करे कि न्याय समय पर और निष्पक्ष रूप से मिले। यही संविधान के मूल उद्देश्यों को साकार करने की दिशा में सच्चा कदम होगा।

राजस्व विभाग में भ्रष्टाचार: गलत पैमाइश से कमाई का खेल

संविधान दिवस वर्षों से मनाये जाने के बावजूद आज भी राजस्व विभाग में लेखपाल और कानूनगो भ्रष्टाचार के नए आयाम रच रहे हैं। पैसे लेकर जमीनों का ऑनलाइन डाटा रातों-रात बदल दिया जाता है। गलत पैमाइश के जरिए किसी की जमीन पड़ोसी की और पड़ोसी की जमीन बगल वालों की दिखा दी जाती है। इससे विवाद बढ़ते हैं और किसानों को भारी नुकसान होता है। इन अधिकारियों की कमाई स्थायी रूप से बनी रहती है क्योंकि पीड़ित पक्ष समाधान के लिए इन्हीं के पास बार-बार लौटता है। यह भ्रष्टाचार न केवल न्याय के साथ खिलवाड़ है बल्कि राजस्व व्यवस्था की साख को भी गिरा रहा है।

रजिस्ट्री के बाद भी जमीन डाटा अपडेट नहीं: राजस्व विभाग की लापरवाही

जमीन रजिस्ट्री के बाद डाटा अपडेट न होना राजस्व विभाग की गंभीर लापरवाही को उजागर करता है। अधिकांश मामलों में रजिस्ट्री के बाद जमीन के दस्तावेज पुराने रिकॉर्ड में ही दर्ज रहते हैं, जिससे मालिकाना हक और सीमा विवाद उत्पन्न होते हैं। इस लापरवाही का खामियाजा आम लोगों को भुगतना पड़ता है, जिन्हें बार-बार कार्यालयों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। कई बार इस प्रक्रिया में भ्रष्टाचार भी पनपता है, जहां अधिकारियों की मिलीभगत से डाटा अपडेट के लिए घूस मांगी जाती है। यह समस्या न केवल लोगों को मानसिक और आर्थिक परेशानियां देती है, बल्कि राजस्व प्रणाली की साख पर भी सवाल खड़ा करती है।

ऊपरी अदालतें आम जनता से दूर: निचली अदालतों में लूट का खेल

संविधान दिवस वर्षों से मनाये जाने के बावजूद आज भी ऊपरी अदालतों तक पहुंचना आम जनता के लिए कठिन है, क्योंकि यहां तक पहुंचने में भारी खर्च और समय लगता है। गरीब और मध्यम वर्ग के लोग इन खर्चों को वहन नहीं कर पाते, जिससे वे निचली अदालतों तक सीमित रह जाते हैं। इसका फायदा लालची मजिस्ट्रेट और ठेकेदार जैसे पेशकार उठाते हैं, जो रिश्वत लेकर फैसले प्रभावित करते हैं। न्याय के नाम पर चल रहे इस खेल में न्याय प्रक्रिया धीमी हो जाती है, और पीड़ितों को “तारीख पर तारीख” की चपेट में डाल दिया जाता है। ऊपरी अदालतों की पहुंच सुलभ और खर्च कम करना इस समस्या का स्थायी समाधान हो सकता है।

गैर-अधिकार क्षेत्रों में पुलिस की दखल: निगरानी की जरूरत

संविधान दिवस वर्षों से मनाये जाने के बावजूद आज भी पुलिस प्रशासन अपने संवैधानिक दायरे को लांघने से नहीं चूकता है। पुलिस  द्वारा विभागीय सहकर्मियों के पक्ष में मर्यादाएं लांघकर गैर-अधिकार क्षेत्रों में हस्तक्षेप करना गंभीर समस्या बन चुका है। यह न केवल न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करता है बल्कि पीड़ितों के अधिकारों का हनन भी करता है। ऐसे मामलों में कोई प्रभावी निगरानी तंत्र न होने के कारण मनमानी बढ़ जाती है। पुलिस की इस दखलअंदाजी को रोकने के लिए कठोर नियम लागू किए जाने चाहिए। साथ ही, सरकारी खर्च पर मुकदमे दर्ज करने की अलग व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि पीड़ित पक्ष को न्याय पाने में वित्तीय बाधाओं का सामना न करना पड़े। निष्पक्ष न्याय व्यवस्था के लिए यह कदम अनिवार्य है।

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