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60 दशक बाद भी न बदला ठौर, न बदली दशा
लाइव कवरेज-ए-तस्वीर, वाराणासी, उत्तर प्रदेश
हेमन्त कुमार तिवारी
बापू तेरी मुस्कान में दम है…! भले ही दीवार से सही, लेकिन निहागें सही जगह टिकी हुई हैं. बगल में वीर योद्या भी हंसमुख है. क्या खूब है. वक्त भी है और फुरसत भी. आजादी के साठ दशक की यादें और तुम्हारे सामने से गुजर रही यह तस्वीर बापू तुम्हारी जेहन में उतर आयी होगी. आज तू अमूर्त भले हो, लेकिन लौकिक दशा के बयां-ए-हाल पर दंगा हो जायेगा. लेकिन, एक सच तुम्हारी सोच भी थी और एक सच यह भी है.
आजादी के साठ दशक बीत चुके हैं, लेकिन क्या हुआ? न नन्हें हाथों को सहारा मिला और न ही बुढ़ापे को संवैधानिक लाठी. दोनों ही एक-दूसरे के सहारे हैं. शायद इसी को कहते हैं चलती का नाम है गाड़ी. जब तक ऐसी गाड़ियां चलती रहेंगी, तब तक मुस्कराने के अलावा और क्या रहेगा.
तेरे आदर्श किताबों से बाहर नहीं निकले. बाबा साहब का संविधान भी तो देश में अधिवक्ताओं से बाहर ही नहीं निकल पाया. अगर इस देश में कुछ आगे निकली है तो वे हैं तिथियां. किसी की पुण्यतिथि तो किसी की जयंती.
देश में अधिकांश लोगों को अपने मौलिक अधिकारों से अधिक इन तिथियों की जानकारी होती है. सूरत-ए-हाल यह है कि दो रोटी नहीं मिली तो लोग भूखे मर जायेंगे और कुछ हुआ तो इलाज के अभाव में तड़प-तड़पकर मर जायेंगे.
मां सरस्वती आज भी स्वर्ग में विराजमान हैं, जिनकी कृपा पाना बहुत ही कठिन है. बहुतों को तो ठौर-ठिकाना भी पता नहीं और उनकी जिंदगी की गाड़ी इसी तरह से ठेल-ठाल कर चल रही है.
बापू शुक्र है कि कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण लाकडाउन चल रहा है, नहीं तो बनारस की भीड़ में इतने कितने ठेले गुजरते होंगे, जिसे न तो आप देख पाते होंगे और न ही अपनी मुस्कान को जाहिर कर पाते होंगे. आज एकांत है और इत्फाक भी. हंसने के सिवाय आज कुछ भी नहीं बचा.