आगरा, पिछले तीन साल से कोरोना के चलते परंपरागत कलाकारों के चेहरों पर फीकी पड़ी मुस्कान फिर खिल उठी है। आगरा में दो दिवसीय जी 20 बैठक के चलते आए विदेशी प्रतिनिधियों और सैलानियों के चलते हस्त शिल्पकारों के काम को काफी सराहा जा रहा है। उनकी कला को न केवल अच्छा महत्व मिल रहा है बल्कि उन्हें अच्छा खासा ऑर्डर भी मिल रहा है। इसका आयोजन होटल ताज में किया गया है। आज (रविवार) इसका आखिरी दिन है। यह एम्पॉवर बैठक महिला सशक्तिकरण पर केंद्रित है।
पिछले कई सालों से जरदोजी का काम करने वाले मोहम्मद बिलाल बताते हैं कि कोरोना महामारी के कारण इस काम में काफी कमी आ गई थी लेकिन अब शहर में विदेशी मेहमानों के आने से अच्छे ऑर्डर मिलने लगे हैं। जी 20 की बैठक में ही उन्हें दो कॉन्ट्रैक्ट मिले हैं। इसके साथ कई लोगों ने इसमें रुचि दिखाई है। वे बताते हैं कि जरदोजी का काम अब काफी पसंद किया जाने लगा है। खासकर मध्य एशिया में जरदोजी से तैयार कपड़ों की काफी मांग है। 60 प्रतिशत माल मध्य एशिया एक्सपोर्ट किया जाता है। भगवान गणेश की आकृति को कपड़े पर उकेरते हुए जरदोजी कलाकार बिलाल बताते हैं कि पहले इस काम में चांदी और सोने की तारों को इस्तेमाल किया जाता था। समय के साथ जरदोजी में भी कई बदलाव आए हैं। अब इसे कीमती धागों से तैयार किया जाने लगा है।
सफेद संगमरर के पत्थरों पर इनले कलाकारी से सुंदर कलाकृतियां तैयार करने वाले 50 वर्षीय मोहम्मद जाहिद बताते हैं कि कलाकारों को उनकी कला के कद्रदान चाहिए। उनकी कला की सही कीमत चाहिए। इसके लिए लोगों की कोशिशों के साथ साथ सरकारी कोशिशों का भी साथ मिलना चाहिए। इनले कलाकारी पत्थरों में की जानी वाली महीन कलाकारी है। कलाकृतियों को तैयार करने में काफी समय लगता है। इसलिए मुफीद मार्केट होनी चाहिए। शहर में जी 20 जैसी बैठकों से उन जैसे कई कलाकारों अपनी कला का प्रदर्शन करने का एक बड़ा मंच मिलता है । आगरा आने वाले पर्यटक इनले से बनी कलाकृतियां यादगारी के लिए जरूर ले जाते हैं।
वहीं मिट्टी से खूबसूरत बर्तन और कलाकृतियां बनाने वाले भगवान दास भी आशान्वित दिखाई दिए। जी 20 में मेहमानों को पारंपरिक कला का प्रदर्शन करने पहुंचे भगवान दास बताते हैं कि समय के साथ कलाकारों को भी बदलना होगा। मार्केट के हिसाब से कलाकारों को अपने उत्पाद तैयार करने चाहिए। वे बताते हैं कि कुम्हारों के सामने मिट्टी उपलब्धता ही सबसे बड़ी समस्या है। अगर उनकी यह समस्या खत्म हो जाए और उन्हें अपने उत्पाद बेचने के लिए मार्केट मिले तो यह परंपरा जिंदा रह सकती है।
साभार- हिस