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तालिबान का आंदोलन से आतंकवाद तक का इतिहास

विनय श्रीवास्तव (स्वतंत्र पत्रकार)
अफगानिस्तान में आज हर तरफ अफरा-तफरी है। वहां के नागरिक किसी भी तरह अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे हैं। भारत से लेकर अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और कई अन्य देश अपने नागरिकों को सुरक्षित अफगानिस्तान से बाहर अपने-अपने देश ले जाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। काबुल हवाई अड्डे पर आतंकी हमले में दो सौ से अधिक लोग मौत के आगोश में जा चुके हैं। इनमें से 13 अमेरिकी सेना के कमांडो भी शामिल हैं। हालांकि अमेरिका ने 36 घंटे के भीतर ही इस हमले का बदला ले लिया है, लेकिन अभी भी मंजर वही है। हजारों लोग काबुल हवाई अड्डे के बाहर अभी भी खड़े हैं। इस आशा में की वे अपनी जान बचाकर दूसरे देश में सकुशल भाग जाएंगे।
दो दशक बाद तालिबान ने पुनः अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है। पूरे विश्व में इस वक्त सिर्फ तालिबान और अफगानिस्तान की ही चर्चा है। क्या अखबार हो या फिर न्यूज चैनल, हर जगह बस इनकी ही चर्चा है। आज की युवापीढ़ी भी तालिबान के इतिहास के बारे में जानने के लिए बहुत उत्सुक है कि आखिर ये तालिबान कौन है जिसने पूरी दुनिया में दहशत फैला रखा है। तालिबान को जानने के लिए इसके इतिहास को जरा खंगालना होगा।
दरसल “पश्तो” भाषा में छात्र को कहते हैं ‘तालिब’ और इसका बहुवचन है ‘तालिबान’। नाम से ही साफ है कि तालिबान संगठन की शुरुआत छात्र आंदोलन के रूप में हुई। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के सीमाई इलाके में बड़ी आबादी पख्तून समुदाय की है।
90 के दशक की शुरुआत में अफगान मुजाहिदीन सोवियत सेना को देश से खदेड़ने में कामयाब रहे, लेकिन इस के बाद भी अफगानिस्तान में सत्ता की जंग नहीं थमी। तालिबान की इस कोशिश को बड़े पैमाने पर जन समर्थन मिला। एक तरफ विदेशी ताकतों की दखलअंदाजी, तो दूसरी तरफ मुजाहिदीन की ज्यादतियों से उस वक्त अफगानिस्तान के लोग त्रस्त और पस्त थे। तालिबानी शासन उनके लिए सपनों जैसा था। पख्तून इलाकों में इसका विस्तार होता गया। किसी भी गलत काम या अपराध करने पर कड़ी सजा दी जाती थी। इस डर के चलते अपराध एकदम से कम हो गए। अराजकता खत्म हुई। लोगों ने बिना डर भय के कारोबार शुरू किया। औरतों के लिए भी माहौल पहले से काफी महफूज हो गया। युद्ध से छिन्न-भिन्न हुए अफगानिस्तान के लिए यह बड़ी राहत थी। लेकिन जल्द ही चीजें बदलने लगीं। तालिबान का बेरहम चेहरा सामने आने लगा। शरीयत को कट्टरता से लागू करने के नाम पर हिंसा का नंगा नाच शुरू हो गया। हत्या या नाजायज रिश्ते जैसे जुर्म में खुलेआम सजा-ए-मौत दी जाने लगी। चोरी करने पर हाथ काट दिया जाने लगा। मर्दों के लिए दाढ़ी रखना जरूरी हो गया, तो औरतों के लिए सिर से लेकर पांव तक को ढकनेवाला बुर्का भी अनिवार्य कर दिया गया। 10 साल या उससे अधिक की लड़कियों का स्कूल जाना बंद हो गया। टीवी देखना, गाना-बजाना, सिनेमा आदि सबकुछ पर फरमान जारी कर दिया गया कि यह इस्लाम के खिलाफ है और तालिबानियों ने इन सभी चीजों पर पाबंदी लगा दी।
अफगानिस्तान की जनता की खुशी मातम में बदलते देर नहीं लगी। हद तो तब होने लगी जब नाबालिग लड़कियों को उनके घर से उठाकर उनके साथ हैवानियत होने लगी। विरोध करने पर तरह के जुल्म ढाहे जाने लगे। बम बरुद और निर्दोषों की निर्मम हत्या तो वहां की दस्तूर बन गई। दो दशक बाद इतिहास ने फिर से करवट बदला है। अमेरिकी सेना के जाते ही तालिबानियों ने तख्ता पलट कर दिया है। अफगानी जनता किसी भी तरह से अफगानिस्तान छोड़कर भाग जाना चाहती है। क्योंकि तालिबानियों ने बर्बरता और क्रूरता का अपना वही पुराना चेहरा दिखाना शुरू कर दिया है। सड़क से लेकर हवाई अड्डे तक का मंजर पूरी दुनिया देख रही है। हर तरफ खौफ और दर्द का मंजर है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इतने जुल्म और दहशतगर्दी के बाद भी मानवाधिकार संगठनों का कोई अता पता नहीं है। किसी एक मौत पर हाय तौबा और अवार्ड वापस करने वाला गिरोह भी खामोश है। ये गिरोह ना सिर्फ खामोश है बल्कि तालिबान का खुलकर समर्थन भी कर रहा है। आतंक के पनाहगारों को जब तक दुनिया एक साथ मिलकर मुकाबला नहीं करेगी तब तक यूँ हीं पूरी दुनिया अशांत रहेगी और इस दहशतगर्दी में बेगुनाह मारे जाएंगे।

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