ट्रेनिंग के लिए अपने घर से रोज 20 किमी दूर जाना पड़ता था. और वहां 6 बजे सुबह हर हाल में पहुंचना होता था. इसके लिए उन्हें दो बस बदलनी पड़ती थी. यह बहुत मुश्किल था. खासकर एक लड़की के लिए तो और भी मुश्किल था. लेकिन मीराबाई चानू ने इन मुश्किलों को बाधा नहीं बनने दिया.
यूँ ही रातों रात कोई मीराबाई चानू नहीं बन जाता है. वर्षों की तप, त्याग, तपस्या और कुछ करने गुजरने की जुनून से बनती है मीराबाई चानू. हसरतें और सपने तो बहुत देखते हैं. लेकिन अपने सपनों को साकार वही करते हैं, जिनके सपने उन्हें चैन से सोने नहीं देते हैं. जो सपने खुली आँखों से देखते हैं. जो कुछ असफलताओं से डगमगाते नहीं हैं. जो सुविधाओं के आभाव से थक कर हार नहीं मानते. और लाख कठिनाइयों के बावजूद भी अपने इरादे नहीं बदलते. ऐसी होती हैं मीराबाई चानू. सिल्वर मेडल जीतकर उन्होंने ना सिर्फ भारत को गौरवान्वित किया है, बल्कि करोड़ों युवाओं के लिए प्रेरणा बनकर उभरी हैं, लेकिन चानूबाई का टोक्यो ओलंपिक में सड़क से सिल्वर मेडल तक का सफर इतना आसान नहीं रहा है. उनकी कड़ी मेहनत और दृढ़ संकल्प से मिली है यह सफलता.
मीराबाई चानू का जन्म 1996 में इम्फाल से 20 किलोमीटर दूर नोंगथोंग काकचिंग गांव में एक बेहद गरीब परिवार में हुआ. वे 6 भाई बहनों में सबसे छोटी हैं. बचपन से ही काफी दृढ़ निश्चयी और मजबूत लड़की रही हैं. 12 साल की उम्र में वो अपने बड़े भाई से अधिक लकड़ियां उठा लेती थीं. उनका सपना तीरंदाज बनने का था. इसके लिए गाइड की तलाश में अपने बड़े भाई के साथ इम्फाल के साईं सेंटर पहुंची, लेकिन वहां कोई तीरंदाज नहीं मिला. किस्मत से वहीं उन्होंने कुंजारानी देवी की 2004 के एथेंस ओलम्पिक में वजन उठाने वाली वीडियो क्लिपिंग देखी. इससे उनका मन बदल गया और उन्होंने यह निश्चय किया की वह भी वेटलिफ्टिंग में ही करियर बनाएंगी और देश के लिए एक दिन मेडल जीतकर देश का नाम रौशन करेंगी. ट्रेनिंग के लिए अपने घर से रोज 20 किमी दूर जाना पड़ता था. और वहां 6 बजे सुबह हर हाल में पहुंचना होता था. इसके लिए उन्हें दो बस बदलनी पड़ती थी. यह बहुत मुश्किल था. खासकर एक लड़की के लिए तो और भी मुश्किल था. लेकिन मीराबाई चानू ने इन मुश्किलों को बाधा नहीं बनने दिया.
मीराबाई चानू ने 2016 में रियो से ओलंपिक करियर की शुरुआत किया. तब उनकी उम्र 21 वर्ष थी. लेकिन वहां उन्हें बुरी तरह से असफलता मिली. वह पहली बार में ही वजन नहीं उठा पाई. उनका आत्मविश्वास कमजोर पड़ गया. उनका दूसरा और तीसरा प्रयास भी असफल रहा. बुरी तरह से टूट चुकी थीं. वह रोते हुए रियो से वापस देश लौटीं. सबकुछ भुला कर अपने खेल पर धयान दिया. मीराबाई ने दिन रात एक कर दिया. अपने खोए हुए आत्मविश्वास पर सफलता प्राप्त की. एक साल कड़ी मेहनत की. नतीजा सामने था. अगले वर्ष 2017 में वर्ल्ड चैंपियनशिप और 2018 में कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड मडल जीतकर खोए हुए आत्मविश्वास को हासिल किया. लेकिन इस जीत के बाद वह चोटिल हो गई. डेढ़ वर्ष तक बाहर रहीं. फिर से उन्होंने कड़ी मेहनत की. नई सिरे से फिर शुरुआत की. अपने आप को मजबूत किया. और 2020 में टोक्यो ओलंपिक का टिकट कटाया. उनके कड़ी मेहनत फिर से रंग लाई. और अब ओलंपिक में सिल्वर मेडल जीतीं. यह 125 साल के ओलंपिक इतिहास में भारत को पहली बार सिल्वर मेडल मिला. पूरा देश उनके इस सफलता पर गर्व कर रहा है. युवाओं को मीराबाई चानू से सीखने की जरूरत है. चाहे आपने कोई भी गोल अपने लिए सेट किया है, उसपर लगातार ईमानदारी से कार्य करना आवश्यक है. हिम्मत नहीं हारना है. असफलताओं से घबराना नहीं है. बाधाओं के आगे झुकना नहीं है. बस अपने मंजिल की तरफ आगे बढ़ते रहना है. एक दिन सफलता आपके कदमों को अवश्य चूमेगी.मीराबाई चानू पर देश को गर्व है.
विनय श्रीवास्तव (स्वतंत्र पत्रकार)