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ऋण – एक लघु कथा

कहानीकार-पंकज सतीजा

जब बहुत से लोग अपने अपने मूल निवास को छोड़ कर रोजी रोटी की तलाश में किसी नयी जगह पर बसते हैं तो एक वृहत परिवार की तरह रहते हैं। किसी एक के घर आया अतिथि उस पूरे मुहल्ले का मेहमान होता है। माएँ भी सांझी होती है, किसी एक की माँ अगर घर के किसी काम में व्यस्त हो जाये तो पड़ोस की महिला उसी ममता और वात्सल्य से बच्चे की देखभाल करती हैं।

अमित भी ऐसे ही माहौल में पला था। यद्यपि उसकी माँ सुलोचना उसको खूब लाड प्यार देती थी, पर उसका समय पड़ोस की कुसुम के यहाँ भी बीतता था। सुलोचना अपने घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए सिलाई-कढाई जैसे छोटे छोटे उद्यम भी करती थी और ऐसे समय में कुसुम अमित को अपने घर ले जाती थी। कुसुम सुलोचना से बड़ी थी, इसलिए अमित उसे बड़ी माँ कह कर बुलाता था।

समय बीता और अमित पढ़ लिखकर परदेश में नौकरी करने लगा। साल दो साल में, एक बार घर आ जाता था।
इस बार, वह चार सालों के बाद घर आ रहा था। रास्ते में उसने देखा कि सड़क किनारे बड़ी माँ कुसुम, अमित की हमउम्र युवतियों के साथ बात कर रही थी। बिना अभिवादन किए, अमित अपने घर की तरफ आगे बढ़ गया।
बड़ी माँ को इस घटना से बहुत पीड़ा हुई और उसने सुलोचना के घर जाकर उससे पूछा कि जिस बालक को गोद में खिलाया उसके पास आज समय क्यों नहीं था ? यह शिक्षा का प्रभाव है या उससे अर्जित धन का। अमित घर पर नहीं था, इसलिए सुलोचना ने पुत्र के व्यवहार पर बातों से कुसुम की पीड़ा को कम करने की कोशिश की।
अमित के घर आने पर सुलोचना ने उससे व्यवहार का कारण पूछा। अमित ने कहा कि यह सत्य है पर वहाँ पर मेरी हमउम्र युवतियाँ थी, वे मेरे बारे में क्या धारणा बनाती, ये सोच कर मैं नहीं रुका।

सुलोचना ने अमित को उसके हृदय की निर्मलता के लिये नारद पुराण में वर्णित शुकदेव जी और व्यास जी की कहानी सुनायी। जब जन्म के पश्चात शुकदेवजी के पीछे व्यास जी दौड़ रहे थे तो जलाशय में स्नान करती स्त्रियों ने शुकदेव जी के लिए कोई प्रतिक्रिया नहीं दी पर व्यासजी के सामने असहज हो गई थी। शुकदेव जी के सामने स्त्री पुरुष का भेद नहीं था। हम जब किसी से मिलते हैं तो पहले किसी व्यक्ति से मिलते है, उसके बाद स्त्री और पुरुष की बाह्य सरंचना आती है। व्यावहारिक मूल्यों में व्यक्ति का गौण होना और उसके पुरुष या स्त्री का प्रमुख होना, हमारी मनोदशा का आकलन करता है। हमारे अंदर की अवधारणा ही सामने वाले के चेहरे पर प्रतिबिंबित होती है।

सुलोचना ने उसकी अभिवादन नहीं करने की गलती को भी सही करने का प्रयास किया। हम जब बच्चे होते हैं तो कई ऐसे लोग जो हमारे कुछ भी नहीं लगते हैं, वे हमें अपने कंधो पर उठाते हैं, अपने गोद में खिलाते हैं। फिर,उनमे से कई जीवन में कब मिलते हैं वह पता नहीं होता। वे तुम्हारे उपर एक ऋण छोड़ जाते हैं। इसलिए, तुम किसी अपने से बड़ों से मिलों तो इस भाँति मिलों कि शायद इन्होंने तुम्हारे बचपन में तुम्हें अपने कंधे पर उठाया होगा। ऐसे भी बड़ों का अभिवादन करने से आयु, विद्या, यश और बल में वृद्धि होती है।

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥

गीता के अध्याय 17 के श्लोक 14 का भी महत्व बताया।

देवद्विज्गुरुप्रज्ञपूजनं शौचमार्जवम् |
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शरीरं तप उच्यते ||

बुजुर्गो की सादगी के साथ की गयी सेवा शरीर की तपस्या है। अमित को अब अपनी भूल का अह्सास था और वह मानवता का ऋण चुकाने के लिए प्रतिबद्ध था।

(लेखक खनन एवं धातु उद्योग से जुड़े हैं)

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