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डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ वार: डॉलर की गिरती साख, यूरो और ब्रिक्स मुद्रा कारण

  • यूरो के बढ़ते प्रयोग तथा प्रस्तावित ब्रिक्स मुद्रा के क्रियान्वयन होने से अमेरिका की अर्थव्यवस्था की टूट सकती है कमर

हेमंत कुमार तिवारी, भुवनेश्वर।

अमेरिका और यूरोपियन देशों के संबंधों में हाल के वर्षों में भारी बदलाव देखने को मिला है। खासतौर पर जब से चीन, भारत और रूस ने आपसी व्यापार में डॉलर की जगह यूरो को प्राथमिकता देनी शुरू की, तब से अमेरिकी प्रशासन काफी बेचैन नजर आ रहा है। डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका ने टैरिफ वार (शुल्क युद्ध) छेड़ दिया है, जिसका मुख्य उद्देश्य डॉलर के प्रभुत्व को बनाए रखना है।

डॉलर के वर्चस्व को चुनौती

दशकों से डॉलर वैश्विक व्यापार और वित्तीय लेनदेन का प्रमुख माध्यम रहा है। लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद वैश्विक व्यापार में बड़ा बदलाव आया, जब भारत और चीन ने रूस से तेल का आयात डॉलर की बजाय यूरो में करना शुरू कर दिया। हालिया रिपोर्टों के अनुसार, भारत ने युद्ध के बाद रूस से 112.5 अरब यूरो का कच्चा तेल खरीदा, जबकि मार्च 2025 तक यह आँकड़ा 205.84 अरब यूरो तक पहुँचने की उम्मीद है। वहीं, चीन भी इसी दिशा में बढ़ रहा है, जिससे दोनों देशों का कुल आयात 500 अरब यूरो से अधिक पहुँच गया है।

ब्रिक्स मुद्रा का प्रस्ताव और अमेरिका की चिंता

डॉलर के प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए ब्रिक्स (BRICS) देशों ने अपनी साझा मुद्रा शुरू करने का प्रस्ताव रखा है। यदि यह ब्रिक्स मुद्रा अस्तित्व में आई, तो यह अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में डॉलर की निर्भरता को कम कर सकती है। चीन, भारत और रूस जैसे देश, जो वैश्विक अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभाते हैं, यदि ब्रिक्स मुद्रा या यूरो का अधिक उपयोग करते हैं, तो अमेरिकी डॉलर की साख को भारी नुकसान हो सकता है।

ट्रंप का टैरिफ वार और अमेरिका की रणनीति

अमेरिकी प्रशासन इस स्थिति से परेशान है क्योंकि डॉलर का प्रभुत्व खत्म होने का मतलब उसकी वैश्विक वित्तीय ताकत में गिरावट होगी। इसी कारण डोनाल्ड ट्रंप ने टैरिफ वार की शुरुआत की, जिसका मुख्य निशाना चीन और भारत बने हैं। यूरोपियन देशों को छोड़कर अमेरिका ने एशियाई महाशक्ति देशों पर भारी आयात शुल्क लगाए हैं। इससे चीन और भारत की अर्थव्यवस्था पर दबाव डालने की कोशिश की जा रही है ताकि वे फिर से डॉलर आधारित व्यापार को अपनाने के लिए मजबूर हो जाएँ।

रूस के साथ अमेरिका की बढ़ती निकटता

ट्रंप प्रशासन की एक और रणनीति रूस के साथ अपने संबंध सुधारने की रही है। अमेरिका अच्छी तरह समझ चुका है कि रूस को अलग-थलग करना संभव नहीं है और चीन तथा भारत के साथ उसके व्यापारिक संबंध अमेरिका के लिए खतरा हैं। इसलिए, अमेरिका अब रूस के करीब जाने की कोशिश कर रहा है ताकि वह उसे यूरो या युआन की बजाय डॉलर में व्यापार करने के लिए प्रोत्साहित कर सके।

यूरो की बढ़ती साख

यूरोपियन यूनियन ने अमेरिका की नीतियों से असहमति जताते हुए कई मामलों में रूस, भारत और चीन के साथ व्यापारिक संबंध मजबूत बनाए रखे हैं। यह अमेरिका के लिए चिंता का विषय है क्योंकि डॉलर को चुनौती देने में यूरो अहम भूमिका निभा रहा है। इस समय यूरोप की मुद्रा वैश्विक ऊर्जा बाजार में एक मजबूत विकल्प बनकर उभर रही है।

भारत और चीन की स्थिति

भारत और चीन के बढ़ते व्यापारिक संबंध और ऊर्जा आपूर्ति में यूरो का उपयोग अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए एक नई चुनौती है। दोनों देश अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता कम करने के लिए वैकल्पिक मुद्राओं की तलाश में हैं और रूस इसमें एक अहम भागीदार बनकर उभरा है। भारत ने हाल ही में कई बड़े सौदे यूरो में किए, जिससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह अमेरिकी दबाव के बावजूद अपनी नीतियों पर कायम रहेगा। यदि ब्रिक्स मुद्रा लागू हो जाती है, तो भारत और चीन का वैश्विक व्यापार पर प्रभाव और अधिक बढ़ सकता है।

टैरिफ वार की असली वजह

डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ वार की असली वजह वैश्विक व्यापार में अमेरिकी डॉलर की घटती पकड़ है। चुकी डोनाल्ड ट्रंप एक व्यापारी भी हैं, इसलिए वह यूरो तथा प्रस्तावित ब्रिक्स मुद्रा को लेकर डॉलर पर पड़ने वाले प्रभाव को भली भांति समझ रहे हैं, क्योंकि भारत और चीन जैसे देश अब यूरो, युआन और अन्य मुद्राओं में व्यापार कर रहे हैं, जिससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर असर पड़ रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद भारत और चीन के द्वारा रूस से 500 अरब यूरो से अधिक का तेल आयात किया जाना, इस बदलाव की सबसे बड़ी मिसाल है। साथ ही, ब्रिक्स मुद्रा का प्रस्ताव अमेरिका के लिए एक और बड़ी चुनौती है, जो डॉलर के प्रभुत्व को और कमजोर कर सकता है। अमेरिका की रणनीति अब यूरोपियन देशों को साथ रखने और रूस के करीब जाने की है, ताकि डॉलर का प्रभुत्व बना रहे। लेकिन मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि वैश्विक व्यापार में डॉलर की जगह यूरो और अन्य मुद्राओं की भूमिका बढ़ रही है, जिससे अमेरिकी नीतियों को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता होगी।

 

 

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