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प्रणब दा संघ के मंच से बोले थे-‘मैं यहां पर राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति समझाने आया हूं…

नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय वर्ष प्रशिक्षण वर्ग के समापन समारोह के मुख्य अतिथि, पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 7 जून, 2018 को जो संबोधन दिया, उसका हिन्दी में अनुदित पाठ यहां जस का तस दिया जा रहा है-

आज मैं भारत के संदर्भ में राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति की अवधारणाओं की अपनी समझ आपके साथ बाँटने आया हूँ। ये तीनों अवधारणाएँ एक-दूसरे में इस तरह गुंथी हुई हैं कि सिर्फ़ एक अवधारणा के बारे में बात करना बेहद कठिन है।

आइए शुरुआत करते हैं इन तीनों शब्दों के अर्थ समझने से। राष्ट्र की परिभाषा है ‘एक भाषा, एक संस्कृति या साझा इतिहास वाले लोग बड़ी संख्या में एक राज्य या एक इलाक़े में रहते हैं तो उसे राष्ट्र कहा जाता है।’ राष्ट्रवाद की परिभाषा है–‘अपने राष्ट्र से जुड़ाव, उसके हितों का समर्थन करना, ख़ास तौर पर दूसरे राष्ट्रों के हितों के मुक़ाबले।’ देशभक्ति की परिभाषा है–‘अपने देश की भक्ति और उसका सक्रिय समर्थन।’

आइए अब अपनी जड़ों को देखते हैं, भारत एक खुला समाज था, दुनिया से सिल्क रूट और स्पाइस रूट के ज़रिए जुड़ा हुआ। व्यापार और साम्राज्य विस्तार के ये व्यस्त रास्ते सांस्कृतिक लेन-देन, आस्था और आविष्कार के प्रसार के मार्ग भी थे। विद्वान और संत, पहाड़ों और रेगिस्तानों और समुद्रों के रास्तों से गुज़र रहे थे। बौद्ध मत के साथ हिंदू दर्शन मध्य एशिया, चीन और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में पहुँचा। प्राचीन काल के यात्री जैसे ईसा पूर्व चौथी सदी के मेगास्थनीज़, पाँचवीं सदी के फ़ा ह्यान या सातवीं सदी में ह्वेन सांग भारत आए, इन सबने भारत की चुस्त प्रशासनिक व्यवस्था, व्यवस्थित बसावट और बेहतर बुनियादी सुविधाओं के बारे में लिखा।

तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वल्लभी, सोमापुरा और उदंतपुरी पुरानी विश्वविद्यालय व्यवस्था के हिस्से थे जिसने ईसा पूर्व छठी सदी से शुरू होकर 1800 साल तक दुनिया पर अपना प्रभुत्व रखा। संसार के सर्वश्रेष्ठ दिमाग़ वाले लोगों और विद्वानों को ये जगहें चुंबक की तरह खींच रही थीं। एक उदारवादी माहौल में इन संस्थानों में रचनात्मकता पनपी और कला, साहित्य और विद्वता का विकास हुआ। राजकाज पर लिखा चाणक्य का विद्वतापूर्ण ग्रंथ अर्थशास्त्र भी इसी दौर की देन है।

यूरोपीय नेशन स्टेट के उदय से बहुत पहले से भारत एक राज्य था, यूरोप में इसकी शुरुआत तो 1648 की वेस्टफालिया की संधि से हुई। एक निश्चत सीमा, एक भाषा, एक धर्म और एक साझा शत्रु वाले राज्य के मॉडल के आधार पर कई यूरोपीय राज्य बने। दूसरी ओर, भारतीय राष्ट्रवाद वसुधैव कुटुंबकम् और सर्वे भवंतु सुखिन सर्वे संतु निरामया के सिद्धांत से जन्मा जो विश्ववाद है। हम पूरे संसार को एक परिवार की तरह देखते हैं और उसकी ख़ुशी और बेहतर सेहत की कामना करते हैं। हमारी राष्ट्रीय पहचान मेलजोल, स्वीकार्यता और सह-अस्तित्व की लंबी प्रक्रिया से गुज़रकर बनी है।

संस्कृति, आस्था और भाषा की विविधता ही भारत को ख़ास बनाती है। हम सहिष्णुता से शक्ति पाते हैं। हम अपनी विविधता को स्वीकार करते हैं और उसका सम्मान करते हैं, हम अपनी विविधता का उत्सव मनाते हैं। ये हमारी सामूहिक चेतना का सदियों से हिस्सा रही हैं। हमारे राष्ट्र को किसी ख़ास मत या धर्म, क्षेत्र, द्वेष या असहिष्णुता के ज़रिए परिभाषित करने की कोई भी कोशिश हमारी राष्ट्रीय पहचान को कमज़ोर करेगी। जितनी भिन्नता दिखती है, वो सब सतह पर है, अंदर से हम एक अनूठी सांस्कृतिक इकाई हैं जिसका इतिहास, साहित्य और सभ्यता साझा है।

इतिहासकार विसेंट स्मिथ के शब्दों में, ‘भारत में बिना शक शुबहे के एक गहरी बुनियादी एकता है, जो सिर्फ़ भौगोलिक विशिष्टता या राजनीतिक श्रेष्ठता से आने वाली एकता से कहीं गहरी है। यह एकता रक्त, वर्ण, भाषा, वेशभूषा, मतों-पंथों की अनेक विविधताओं से कहीं ऊपर है।’

एक राज्य के तौर पर भारत के उदय पर एक नज़र डालें तो सोलह महाजनपदों का खयाल आता है जो ईसा के छह सदी पहले मोटे तौर पर उत्तर भारत में फैला हुआ था। ईसा से चार सदी पहले चंद्रगुप्त मौर्य ने यूनानियों को हराकर एक शक्तिशाली साम्राज्य की नींव रखी जो उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत में फैला हुआ था। इस राजवंश का सबसे प्रतापी राजा सम्राट अशोक था, मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद यह साम्राज्य ईसा के करीब 185 वर्ष पहले छोटे छोटे राज्यों में बँट गया। इसके बाद गुप्त राजवंश ने बहुत बड़ा साम्राज्य खड़ा किया जो पाँचवी सदी के मध्य तक चला।

12वीं सदी तक देश पर कई राजवंशों ने राज किया जिसके बाद मुस्लिम आक्रांताओं ने दिल्ली पर कब्ज़ा किया और अगले तीन सौ साल तक शासन करते रहे। बाबर ने अंतिम लोदी राजा को 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई में हराया और मुग़ल साम्राज्य की नींव रखी जो तीन सौ साल तक चली। 1757 में पलासी की लड़ाई और अरकोट की तीन लड़ाइयाँ जीतकर ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत के पूर्वी और दक्षिणी भूभाग के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा जमा लिया। देश के पश्चिमी भूभाग का एक बड़ा हिस्सा भी कंपनी के नियंत्रण में चला गया और भारत पर शासन की एक आधुनिक व्यवस्था 1774 में बनी।

इन इलाक़ो का शासन चलाने के लिए कलकत्ता के फोर्ट विलियम में गवर्नर जनरल था जिसके मातहत मद्रास और मुंबई में दो गवर्नर थे। करीब 140 साल तक कलकत्ता भारत में ब्रितानी हुकूमत का केंद्र था। हालाँकि 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी से प्रशासन चलाने की ज़िम्मेदारी ले ली गई और ब्रितानी कैबिनेट के अधीन सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया की नियुक्ति राजकाज चलाने के लिए हुई।

राजनीतिक क़िस्मत बदलने और साम्राज्यों के बनने-बिगड़ने के 2500 साल के दौर में हमारी पाँच हज़ार साल पुरानी सभ्यता हमेशा अटूट रही है। असल में, हर विजेता और विदेशी तत्व को समो लिया, एकता और मेल-मिलाप का नया ताना-बाना बना। भारत तीर्थ नाम की अपनी कविता में टैगौर लिखते हैं, “कोई नहीं जानता कि किसके कहने पर मानवता की अनेक धाराएँ, सदियों से नदियों की तरह आईं और एक विशाल सागर में मिल गईं, उस सागर की एक आत्मा है जिसका नाम भारत है।”

आधुनिक भारतीय राष्ट्र की परिभाषा गढ़ने वाले भारतीय संगठनों में 19वीं सदी के अंत में जन्मी इंडियन नेशनल कांग्रेस अग्रणी रही है। 1895 में पुणे में सुरेंद्रनाथ बैनर्जी से लेकर सभी कांग्रेस अध्यक्षों ने जब भारत की बात कही तो वह भारत ब्रिटिश इंडिया और 565 रजवाड़ों में बँटा था। बैरिस्टर जोसेफ़ बापातिस्ता के नारे को बाल गंगाधर तिलक ने आवाज़ दी, ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।’ वे भारत के लोगों के लिए स्वराज चाहते थे, जिसमें अनेक जाति, वर्ग, वर्ण और धर्म के लोग थे जो ब्रिटिश इंडिया और रजवाड़ों में रह रहे थे। यह राष्ट्र और राष्ट्रवाद किसी भूगोल, भाषा, धर्म या नस्ल तक सीमित नहीं था। जैसा गांधी जी ने कहा है, ये भारतीय राष्ट्रवाद न तो विभेदकारी था, न आक्रामक और न ही विध्वंसक। ये वही राष्ट्रवाद है जिसे इतने विस्तार से पंडित जवाहर लाल नेहरू ने डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में दिखाया है। उन्होंने कहा, ‘मेरा पक्का विश्वास है कि राष्ट्रवाद हिंदू, मुसलमान, सिख और दूसरे समूहों के दायरे से बाहर निकल सकता है, इसका ये मतलब नहीं है कि किसी समूह की संस्कृति मिट जाए लेकिन इसका ये मतलब है कि एक साझा राष्ट्रीय दृष्टि पैदा हो जो सबसे ऊपर हो।’

ब्रितानी राज के ख़िलाफ़ हमारे आंदोलन में कई तरह की साम्राज्यवाद विरोधी ताक़तें, ज्यादातर प्रगतिशील अभियान पूरे देश के कोने कोने में चले वे आज़ादी के एक अर्थपूर्ण राष्ट्रीय आंदोलन में बदल गए। देशभक्ति की भावना उनके अपने व्यक्तिगत, वैचारिक और राजनीतिक रुझानों से ऊपर रही। हमें आज़ादी 1947 में आज़ादी मिली। सरदार वल्लभभाई पटेल के प्रयासों से रजवाड़े भारत में मिल गए और एक भारत बना। यह प्रक्रिया राज्यों और रजवाड़ों के पुनर्गठन के लिए बने आयोग की सिफ़ारिशों पर अमल के बाद पूरी हुई। 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ। अदभुत आदर्शवाद और साहस का परिचय देते हुए हम भारत के लोगों ने ख़ुद को संप्रभु, लोकतांत्रिक गणतंत्र दिया जिसका लक्ष्य देश के सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता और समता हासिल करना है। हमने तय किया कि हम सभी नागरिकों में बंधुत्व, लोगों का सम्मान और देश की एकता सुनिश्चित करेंगे। ये वो आदर्श हैं जो आधुनिक भारतीय राष्ट्र की शान हैं। लोकतंत्र हमारा सबसे बड़ा मार्गदर्शक है जो हमें शांति और विपन्नता से समृद्धि की ओर ले जाएगा जो सदियों के साम्राज्यवादी शासन की देन है। हमारे लिए लोकतंत्र कोई उपहार नहीं है, वह पवित्र आस्था है।

12 अध्यायों और 395 अनुच्छेदों वाला हमारा संविधान क़ानूनी दस्तावेज़ नहीं बल्कि देश के सामाजिक आर्थिक उन्नयन का घोषणापत्र है। यह एक अरब से ज्यादा भारतीयों की आशा और प्रेरणा है। हमारे राष्ट्रवाद का उदमग संविधान से होता है। भारतीय राष्ट्रवाद एक संवैधानिक देशभक्ति है जिसमें हमारी साझा विरासत और विविधता की समझ शामिल है। हमें नागरिक के तौर पर एक दूसरे से सीखने और ग़लतियों को सुधारने के लिए तैयार रहना चाहिए।

दोस्तो, प्रतिनिधियो, महिलाओं और सज्जनों, मैंने पचास साल से लंबे अपने सार्वजनिक जीवन में जिन मूल्यों को आत्मसात किया है, एक सांसद और प्रशासक के तौर पर, वो मैं आपसे बाँटना चाहता हूँ। भारत की आत्मा विविधता और सहिष्णुता में वास करती है, हमारे समाज की विविधता विचारों के परस्पर मिलन से सदियों में गढ़ी गई है। सेकुलरिज़्म और समावेशी जीवन हमारे लिए आस्था के प्रश्न हैं। ये हमारी मिली-जुली संस्कृति ही हमें एक राष्ट्र बनाती है। भारत एक भाषा, एक धर्म, या एक साझा शत्रु वाला राष्ट्र नहीं है। यह सवा अरब लोगों का शाश्वत विश्ववाद है, जो 122 से अधिक भाषाओं 1600 बोलियों का इस्तेमाल करते हैं, सात अलग-अलग बड़े धर्म हैं, तीन तरह की नस्लें हैं–आर्य, मंगोलायड और द्रविड़, ये सभी एक संविधान और एक झंडे के तहत रहते हैं। ये सब भारतीय हैं, और इनका कोई शत्रु नहीं है। यही भारत को विविधतापूर्ण एकजुट राष्ट्र बनाता है।

एक लोकतंत्र में राष्ट्रीय महत्व के सभी मुद्दों पर समझदारी से सावर्जनिक चर्चा होनी चाहिए। अलग अलग हितों के टकराव की स्थिति में उनके समाधान के लिए ऐसी चर्चा अहम हो जाती है। ये मानना होगा कि सार्वजनिक चर्चा में कई तरह के विचार सामने आते हैं, हम सहमत हो सकते हैं, असहमत हो सकते हैं, लेकिन मतों की भिन्नता से हम इनकार नहीं कर सकते। हम सिर्फ़ संवाद से ही जटिल समस्याओं को सुलझाने के लिए सहमति बना सकते हैं और राजनीति में अस्वस्थ टकराव को रोक सकते हैं।

शांतिपूर्ण सह अस्तित्व, करुणा, जीवन के प्रति सम्मान और आपसी सामंजस्य हमारी सभ्यता की बुनियाद हैं। जब कभी किसी महिला या बच्चे के साथ क्रूरता होती है तो भारत की आत्मा आहत होती है। गुस्से का विस्फोट हमारी समाजिक बनावट को तार तार कर रहा है। हर दिन हम अपने चारों ओर बढ़ती हिंसा देख रहे हैं, इस हिंसा के पीछे अंधकार, भय और अविश्वास है। हमें अपने सभी सार्वजनिक संवादों को हर तरह की हिंसा से मुक्त करना होगा, मौखिक और शारीरिक दोनों की तरह हिंसा से। सिर्फ़ एक अहिंसक समाज में ही हम ये लक्ष्य पा सकते हैं कि वंचित और हाशिए पर पड़े लोग गुस्से, नफ़रत और हिंसा से निकलकर शांति, समृद्धि और खुशहाली की तरफ़ बढ़ सकें।

हम लंबे समय से पीड़ा, संघर्ष में जीते रहे हैं। आप युवा हैं, अनुशासित हैं, प्रशिक्षित हैं और पढ़े लिखे हैं। कृपया शांति, समन्वय और ख़ुशहाली की कामना करें। हमारी मातृभूमि इसकी माँग करती है, हमारी मातृभूमि का ये अधिकार है।

खुशहाली जीवन का बुनियादी मानवीय अधिकार है। स्वस्थ, खुशहाल और सार्थक जीवन जीना देश के सभी नागरिकों का बुनियादी अधिकार है। हमने दुनिया में विकास के मानकों पर तो अच्छा काम किया है लेकिन खुशहाली के इंडेक्स में हम काफी पिछड़े हुए हैं। हम 156 देशों की सूची में 133वें हैं। अर्थशास्त्र में चाणक्य का एक श्लोक है जो संसद भवन की छह नंबर की लिफ्ट के पास लिखा है–

 प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम् ।

 नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम् ।।

जनता के सुख में ही राजा का सुख है, प्रजा का कल्याण ही राजा का कल्याण है। उसको वही नहीं करना चाहिए जो उसको अच्छा लगता है, बल्कि उसे सोचना चाहिए कि सबके हित में क्या है वही किया जाए।

कौटिल्य इस श्लोक में बताते हैं कि राज्य नागरिकों के लिए है। राज्य की हर गतिविधि के केंद्र में नागरिक हैं, नागरिकों में भेदभाव पैदा करने वाला या उन्हें बाँटने वाला कोई काम नहीं किया जाना चाहिए। राज्य का लक्ष्य होना चाहिए वो लोगों को गरीबी, बीमारी और तकलीफों से मुक्त कराने में ऊर्जा लगाए, और आर्थिक वृद्धि को सच्चे विकास में बदल दे।

आइए शांति, समन्वय और खुशहाली को अपनी राष्ट्रीय नीति का हिस्सा बनाएँ, और इसी के ज़रिए हमारे राष्ट्र के सभी कार्यकलाप और आम नागरिकों का जीवन चले। सिर्फ़ इसी तरह और सिर्फ़ इसी तरह हम एक खुशहाल राष्ट्र बना पाएँगे, जहाँ राष्ट्रवाद का प्रवाह अपने आप होगा।

 धन्यवाद, जय हिंद, वंदेमातरम्।

साभार-हिस

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